परिहारमाह । १आगमप्रसिद्धयागुरुलघुकगुणहानिवृद्ध्यपेक्षया, अथवा येनोत्पादादिरूपेण ज्ञेयं वस्तु
परिणमति तेन परिच्छित्त्याकारेण ज्ञानपरिणत्यपेक्षया । अथवा मुक्तौ संसारपर्यायविनाशः
सिद्धपर्यायोत्पादः शुद्धजीवद्रव्यापेक्षया धौव्यश्च सिद्धानामुत्पादव्ययौ ज्ञातव्याविति । अत्र तदेव
सिद्धस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।५६।।
अथ द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं प्रतिपादयति —
५७) तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु ।
सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु ।।५७।।
तं परिजानाहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्त म् ।
सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ।।५७।।
तेनो परिहार : — (१) आगम प्रसिद्ध अगुरुलघुगुणनी हानि-वृद्धिनी अपेक्षाए
अथवा (२) जे उत्पादादिरूपे ज्ञेय वस्तु परिणमे छे तेनी परिच्छित्तिना (जाणवाना) आकारे
ज्ञान परिणमे छे ते अपेक्षाए अथवा (३) सिद्ध थया त्यारे संसारपर्यायनो नाश थयो, सिद्ध
पर्यायनो उत्पाद थयो अने शुद्ध जीवद्रव्यनी अपेक्षाए ध्रौव्य रह्युं ते अपेक्षाए, सिद्धोने
उत्पादव्यय जाणवा.
अहीं ते सिद्ध स्वरूप उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ५६.
हवे द्रव्य गुण पर्यायनुं स्वरूप कहे छेः —
-वृद्धिकी अपेक्षा सिद्धोंके उत्पाद-व्यय कहा जाता है । अथवा समस्त ज्ञेयपदार्थ उत्पाद-व्यय
-ध्रौव्यरूप परिणमते हैं, सो सब पदार्थ सिद्धोंके ज्ञान-गोचर हैं । ज्ञेयाकार ज्ञानकी परिणति है,
सो जब ज्ञेय-पदार्थमें उत्पाद-व्यय हुआ, तब ज्ञानमें सब प्रतिभासित हुआ, इसलिये ज्ञानकी
परिणतिकी अपेक्षा उत्पाद-व्यय जानना । अथवा जब सिद्ध हुए, तब संसार-पर्यायका विनाश
हुआ, सिद्धपर्यायका उत्पाद हुआ, तथा द्रव्य स्वभावसे सदा ध्रुव ही हैं । सिद्धोंके जन्म, जरा,
मरण नहीं हैं, सदा अविनाशी हैं । सिद्धका स्वरूप सब उपाधियोंसे रहित है, वही उपादेय है,
यह भावार्थ जानना ।।५६।।
आगे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप कहते हैं —
गाथा – ५७
अन्वयार्थ : — [यत् ] जो [गुणपर्याययुक्तं ] गुण और पर्यायोंकर सहित है, [तत् ]
१. पाठान्तरः — आगमप्रसिद्धया = आगमप्रसिद्धा.
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-५७