शुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परमानंदमय सुख समजवुं , ‘निरुपम’ शब्दथी समस्त
उपमा रहित समजवुं अने ‘ज्ञान’ शब्दथी केवळज्ञान समजवुं.
शुं करता थका आवा थशे? विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाववाळा शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक्
श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्-आचरणरूप अमूल्य रत्नत्रयना भारथी पूर्ण, मिथ्यात्व, विषय
अने कषायादिरूप समस्त विभावजळना प्रवेश रहित शुद्ध आत्मानी भावनाथी उत्पन्न सहजानंद
जेनुं एक रूप छे एवा सुखामृतथी विपरीत नरकादिदुःखरूप क्षारजळथी पूर्ण संसारसमुद्रने
तरवाना उपायभूत समाधिरूपी नावने भजता, सेवता थका अर्थात् तेना आधारे चालता अनंत
सिद्ध थशे.
अहीं शिवमय, निरुपम, ज्ञानमय शुद्ध आत्मस्वरूप उपादेय छे एवो भावार्थ छे. २.
कर्मतापन्नान् अहं वन्दे । कथंभूतान् । केवलज्ञानादिमोक्षलक्ष्मीसहितान्
सम्यक्त्वाद्यष्टगुणविभूतिसहितान् अनन्तान् । किं करिष्यन्ति । ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण
दुर्लभबोधिं लब्ध्वा भविष्यन्त्यग्रे श्रेणिकादयः । किंविशिष्टा भविष्यन्ति ।
शिवमयनिरुपमज्ञानमयाः । अत्र शिवशब्देन स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखं ग्राह्यं,
निरुपमशब्देन समस्तोपमानरहितं ग्राह्यं, ज्ञानशब्देन केवलज्ञानं ग्राह्यम् । किं कुर्वाणाः सन्त
इत्थंभूताः भविष्यन्ति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपामूल्य-
रत्नत्रयभारपूर्णं मिथ्यात्वविषयकषायादिरूपसमस्तविभावजलप्रवेशरहितं शुद्धात्मभावनोत्थसहजा-
नन्दैकरूपसुखामृतविपरीतनरकादिदुःखरूपेण क्षारजलेन पूर्णस्य संसारसमुद्रस्य तरणोपायभूतं
समाधिपोतं भजन्तः सेवमानास्तदाधारेण गच्छन्त इत्यर्थः । अत्र शिवमयनिरुपम-
ज्ञानमयशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।२।।
अधिकार-१ः दोहा-२ ]परमात्मप्रकाशः [ १५
जीव सिद्ध होंगे । पुनः कैसे होंगे ? शिव अर्थात् निज शुद्धात्माकी भावना, उसकर उपजा जो
वीतराग परमानंद सुख, उस स्वरूप होंगे, समस्त उपमा रहित अनुपम होंगे, और केवलज्ञानमई
होंगे । क्या करते हुए ऐसे होंगे ? निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव जो शुद्धात्मा है, उसके यथार्थ
श्रद्धान - ज्ञान-आचरणरूप अमोलिक रत्नत्रयकर पूर्ण और मिथ्यात्व विषय कषायादिरूप समस्त
विभावरूप जलके प्रवेशसे रहित शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो सहजानंदरूप सुखामृत,
उससे विपरीत जो नारकादि दुःख वे ही हुए क्षारजल, उनकर पूर्ण इस संसाररूपी समुद्रके
तरनेका उपाय जो परमसमाधिरूप जहाज उसको सेवते हुए, उसके आधारसे चलते हुए, अनंत
सिद्ध होंगे । इस व्याख्यानका यह भावार्थ हुआ, कि जो शिवमय अनुपम ज्ञानमय शुद्धात्मस्वरूप
है वही उपादेय है ।।२।।