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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८५
चन्दनादिद्रुमवनराजितंदेवेन्द्रचक्रवर्तिगणधरादिभव्यजीवतीर्थयात्रिकसमूहश्रवणसुखकरदिव्यध्वनिरूपराजहंस-
प्रभृतिविविधपक्षिकोलाहलमनोहरं यदर्हद्वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं तदेव निश्चयेन गङ्गादितीर्थं न
लोकव्यवहारप्रसिद्धं गङ्गादिकम् । परमनिश्चयेन तु जिनेश्वरपरमतीर्थसद्रशं संसारतरणोपाय-
कारणभूतत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिरतानां निजशुद्धात्मतत्त्वस्मरणमेव तीर्थं, व्यवहारेण तु
तीर्थंकरपरमदेवादिगुणस्मरणहेतुभूतं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणं तन्निर्वाणस्थानादिकं च तीर्थ-
मिति । अयमत्र भावार्थः । पूर्वोक्तं निश्चयतीर्थं श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरहितानामज्ञानिनां शेष-
तीर्थं मुक्ति कारणं न भवतीति ।।८५।।
अथ ज्ञानिनां तथैवाज्ञानिनां च यतीनामन्तरं दर्शयति —
चंदनादि वृक्षोना वनथी शोभित, देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधरादि भव्य जीवरूपी तीर्थयात्राळुओना
कर्णने सुखकारी एवा दिव्यध्वनिरूप राजहंसादि विविध पक्षीओना कोलाहलथी मनोहर एवुं जे
अर्हंत वीतराग सर्वज्ञनुं स्वरूप ते ज निश्चयथी (खरेखर) गंगादि तीर्थ छे, पण लोकव्यवहारमां
प्रसिद्ध एवा गंगादि, ते तीर्थ नथी.
परम निश्चयनयथी तो वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिमां रत मुनिओने, संसार तरवाना
उपायमां कारणभूत होवाथी जिनेश्वररूप परमतीर्थना जेवुं निजशुद्धआत्मतत्त्वनुं स्मरण ज तीर्थ
छे अने व्यवहारनयथी तीर्थंकर परमदेवादिना गुणस्मरणना कारणभूत अने मुख्यपणे पुण्यबंधना
कारणरूप ते निर्वाणस्थान आदि तीर्थ छे.
अहीं, ए भावार्थ छे के पूर्वोक्त निश्चयतीर्थना श्रद्धान, परिज्ञान अने अनुष्ठानथी रहित
अज्ञानीओने अन्य तीर्थ मुक्तिनुं कारण थतुं नथी. ८५.
हवे, ज्ञानी अने अज्ञानी यतिओनो तफावत दर्शावे छेः —
वनोंसे शोभित तथा देवेन्द्र चक्रवर्त्ती गणधरादि भव्यजीवरूपी तीर्थ - यात्रियोंके कानोंको सुखकारी
ऐसी दिव्यध्वनिसे शोभायमान और अनेक मुनिजनरूपी राजहंसोंको आदि लेकर नाना तरहके
पक्षियोंके शब्दोंसे महामनोहर जो अरहंत वीतराग सर्वज्ञ वे ही निश्चयसे महातीर्थ हैं, उनके
समान अन्य तीर्थ नहीं हैं । वे ही संसारके तरनेके कारण परमतीर्थ हैं । जो परम समाधि में
लीन महामुनि हैं, उनके वे ही तीर्थ हैं, निश्चयसे निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानके समान दूसरा
कोई तीर्थ नहीं है, और व्यवहारनयसे तीर्थंकर परमदेवादिके गुणस्मरणके कारण मुख्यतासे शुभ
बंधके कारण ऐसे जो कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं, वे भी व्यवहारमात्र तीर्थ
कहे हैं । जो तीर्थ – तीर्थ प्रतिभ्रमण करे, और निज तीर्थका जिसके श्रद्धान परिज्ञान आचरण नहीं
हो, वह अज्ञानी है । उसके तीर्थ भ्रमनेसे मोक्ष नहीं हो सकता ।।८५।।
आगे ज्ञानी और अज्ञानी यतियोंमें बहुत बड़ा भेद दिखलाते हैं —