समस्तमिथ्यात्वरागाद्यास्रवेभ्यः पृथग्रूपेण परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव रागादिपरिहाररूपेण
निश्चलचित्तवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् इत्येवं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्त्रयात्मकमात्मानमरोचमानस्तथै-
वाजानन्नभावयंश्च मूढात्मा
पृथक्रूपे परिच्छित्तिरूप सम्यग्ज्ञान अने रागादिना परिहाररूपे ते ज परमात्मामां
निश्चळचित्तवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र एवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप त्रयात्मक आत्मानी रुचि न करतो
तेम ज तेने न जाणतो अने तेने न भावतो मूढात्मा समस्त जगतने धर्मना बहानाथी
(भोगववाना बहानाथी) ग्रहण करवाने इच्छे छे, ज्यारे पूर्वोक्त ज्ञानी (जगतना समस्त
भोगोने) छोडवा इच्छे छे. ८७.
छेः
परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तकी वृत्ति वह सम्यक्चारित्र, यह
निश्चयरत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढ़जन आत्मा को नहीं जानता हुआ,
और नहीं अनुभवता हुआ जगत्के समस्त भोगोंको धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन
समस्त भोगोंसे उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड़ दिये और आगामी वाँछा नहीं
है, ऐसा जानना
लज्जावान् होता है