Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 88 (Adhikar 2).

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अधिकार-२ः दोहा-८७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३६३
सहजानन्दैकसुखास्वादरूपः स्वशुद्धात्मैव उपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तस्यैव परमात्मनः
समस्तमिथ्यात्वरागाद्यास्रवेभ्यः पृथग्रूपेण परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव रागादिपरिहाररूपेण
निश्चलचित्तवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् इत्येवं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्त्रयात्मकमात्मानमरोचमानस्तथै-
वाजानन्नभावयंश्च मूढात्मा
किं करोति समस्तं जगद्धर्मब्याजेन ग्रहीतुमिच्छति, पूर्वोक्त ज्ञानी
तु त्यक्तु मिच्छतीति भावार्थः ।।८७।।
अथ शिष्यकरणाद्यनुष्ठानेन पुस्तकाद्युपकरणेनाज्ञानी तुष्यति, ज्ञानी पुनर्बन्धहेतुं जानन्
सन् लज्जां करोतीति प्रकटयति
२१५) चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिँ तूसइ मूढु णिभंतु
एयहिँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु ।।८८।।
उपादेय छे एवी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, ते ज परमात्मानुं समस्त मिथ्यात्व, रागादि आस्रवोथी
पृथक्रूपे परिच्छित्तिरूप सम्यग्ज्ञान अने रागादिना परिहाररूपे ते ज परमात्मामां
निश्चळचित्तवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र एवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप त्रयात्मक आत्मानी रुचि न करतो
तेम ज तेने न जाणतो अने तेने न भावतो मूढात्मा समस्त जगतने धर्मना बहानाथी
(भोगववाना बहानाथी) ग्रहण करवाने इच्छे छे, ज्यारे पूर्वोक्त ज्ञानी (जगतना समस्त
भोगोने) छोडवा इच्छे छे. ८७.
हवे, शिष्य करवा आदिना कार्यथी अने पुस्तक आदिना उपकरणथी अज्ञानी संतोष
पामे छे अने ज्ञानी तेने बंधनो हेतु जाणतो थको (तेमनाथी) लज्जा पामे छे, एम हवे कहे
छेः
योग्य है, ऐसी जो रुचि वह सम्यग्दर्शन, समस्त मिथ्यात्व रागादि आस्रवसे भिन्नरूप उसी
परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तकी वृत्ति वह सम्यक्चारित्र, यह
निश्चयरत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढ़जन आत्मा को नहीं जानता हुआ,
और नहीं अनुभवता हुआ जगत्के समस्त भोगोंको धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन
समस्त भोगोंसे उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड़ दिये और आगामी वाँछा नहीं
है, ऐसा जानना
।।८७।।
आगे शिष्योंका करना, पुस्तकादिका संग्रह करना, इन बातोंसे अज्ञानी प्रसन्न होता है,
और ज्ञानीजन इनको बंधके कारण जानता हुआ इनसे रागभाव नहीं करता, इनके संग्रहमें
लज्जावान् होता है