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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९०
केनाप्यात्मा वञ्चितः । किं कृत्वा । शिरोलुञ्चनं कृत्वा । केन । भस्मना । कस्मादिति
चेत् । यतः सर्वेऽपि संगा न परिहृताः । कथंभूतेन भूत्वा । जिनवरलिङ्गधारकेणेति । तद्यथा ।
वीतरागनिर्विकल्पनिजानन्दैक रूपसुखरसास्वादपरिणतपरमात्मभावनास्वभावेन तीक्ष्णशस्त्रोपकरणेन
बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहकांक्षारूपप्रभृतिसमस्तमनोरथकल्लोलमालात्यागरूपं मनोमुण्डनं पूर्वमकृत्वा
जिनदीक्षारूपं शिरोमुण्डनं कृत्वापि केनाप्यात्मा वञ्चितः । कस्मात् । सर्वसंगपरित्यागाभावादिति ।
अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दपरिग्रहं कृत्वा तु जगत्त्रये
कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च द्रष्टश्रुतानुभूतनिःपरिग्रहशुद्धात्मानुभूतिविपरीत-
परिग्रहकाङ्क्षास्त्वं त्यजेतित्यभिप्रायः ।।९०।।
भावार्थः — वीतराग निर्विकल्प निजानंद जेनुं एक रूप छे एवा सुखरसना आस्वादरूपे
परिणत परमात्मानी भावनाना स्वभावरूप तीक्ष्ण शस्त्रना उपकरणथी बाह्य, अभ्यंतर परिग्रहनी
आकांक्षा आदिथी मांडीने समस्त मनोरथनी कल्लोलमाळाना त्यागरूप मनोमुंडन पूर्वे कर्युं नहि.
जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन करीने पण सर्वसंग परित्याग कर्यो न होवाथी तेणे पोताना आत्माने
छेतर्यो.
अहीं, आ कथन जाणीने निज शुद्ध-आत्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप
परिग्रहने ग्रहीने त्रण काळमां त्रण लोकमां मन, वचन, कायथी, कृत, कारित, अनुमोदनथी
निष्परिग्रह शुद्धात्मानी अनुभूतिथी विपरीत एवा देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला परिग्रहनी
आकांक्षा छोडवी, एवो अभिप्राय छे. ९०.
करके [क्षारेण ] भस्मसे [शिरः ] शिरके केश [लुंचित्वा ] लौंच किये, (उखाड़े) लेकिन
[सकला अपि संगाः ] सब परिग्रह [न परिहृताः ] नहीं छोड़े, उसने [आत्मा ] अपनी
आत्माको ही [वंचितः ] ठग लिया ।
भावार्थ : — वीतराग निर्विकल्पनिजानंद अखंडरूप सुखरसका जो आस्वाद उसरूप
परिणामी जो परमात्माकी भावना वही हुआ, तीक्ष्ण शस्त्र उससे बाहिरके और अंतरके परिग्रहोंकी
वाञ्छा आदि ले समस्त मनोरथ उनकी कल्लोल मालाओंका त्यागरूप मनका मुंडन वह तो
नहीं किया, और जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन कर भेष रखा, सब परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने
अपनी आत्मा ठगी । ऐसा कथन समझकर निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न, वीतराग परम,
आनंदस्वरूपको अंगीकार करके तीनों काल तीनों लोकमें मन, वचन, काय, कृत, कारित,
अनुमोदनाकर देखे, सुने, अनुभवे जो परिग्रह उनकी वाँछा सर्वथा त्यागनी चाहिये । ये परिग्रह
शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत हैं ।।९०।।