बाह्यवीर्याचार इति । अयं तु व्यवहारपञ्चाचारः पारंपर्येण साधक इति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव-
शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानबहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिरूपं तपश्चरणं स्वशक्त्यनवगूहन-
वीर्यरूपाभेदपञ्चाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं
स्वयमाचरन्त्यन्यानाचारयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे । पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्व-
नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्धजीवद्रव्यशुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञं स्वशुद्धात्म-
भावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं कथयन्ति, शुद्धात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षमार्गं च ये कथयन्ति ते भवन्त्युपाध्यायास्तानहं वन्दे । शुद्धबुद्धैक-
स्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणतपश्चरणरूपाभेदचतुर्विधनिश्चयाराधनात्मकवीतराग-
इच्छानी निवृत्तिरूप तपश्चरण, स्वशक्तिने न गोपववारूप वीर्य — ए रूप अभेद पंचाचारात्मक
शुद्धोपयोगभावनामां अन्तर्भूत एवी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिने जेओ स्वयं आचरे छे, अने
अन्योने अचरावे छे तेओ आचार्यो छे, तेमने हुं नमस्कार करुं छुं.
पंचास्तिकाय, छ द्रव्य, साततत्त्व, नव पदार्थो छे, तेमां शुद्ध जीवास्तिकाय, शुद्ध जीवद्रव्य,
शुद्ध जीवतत्त्व, शुद्ध जीवपदार्थ एवा संज्ञाधारक स्वशुद्धात्मभाव (स्वशुद्धात्मपदार्थ) उपादेय छे,
तेनाथी जे अन्य छे ते हेय छे, एवो उपदेश जेओ करे छे अने शुद्ध आत्मस्वभावनां सम्यक्-
श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्आचरणरूप अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चय मोक्षमार्गने जेओ कहे
छे तेओ उपाध्यायो छे, तेमने हुं वंदन करुं छुं.
शुद्ध, बुद्ध जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान,
अने सम्यक्आचरण, तपश्चरणरूप अभेद चतुर्विध निश्चय-आराधनात्मक वीतराग-
अधिकार-१ः दोहा-७ ]परमात्मप्रकाशः [ २५
पंचाचार साक्षात् मुक्तिका कारण है । ऐसे निश्चय व्यवहाररूप पंचाचारोंको आप आचरें और
दूसरोंको आचरवावें ऐसे आचार्योंको मैं वंदता हूँ । पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व, नवपदार्थ
हैं, उनमें निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निजशुद्ध जीवद्रव्य, निजशुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध
जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य
हैं, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्मस्वभावका सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद
रत्नत्रय है, वही निश्चयमोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्योंको देते हैं, ऐसे उपाध्यायोंको मैं नमस्कार
करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वकी आराधनारूप वीतराग१ निर्विकल्प समाधिको
जो साधते हैं, उन साधुओंको मैं वंदता हूँ । वीतराग१ निर्विकल्प समाधिको जो आचरते हैं, कहते
१. वे पाँचों परमेष्ठी भी जिस वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको आचरते हैं, कहते हैं और साधते हैं; तथा जो
उपादेयरूप निजशुद्धात्मतत्त्वकी साधनेवाली है, ऐसी निर्विकल्प समाधिको ही उपादेय जानो । (यह
अर्थ संस्कृतके अनुसार किया गया है ।)