Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration).

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अधिकार-२ः दोहा-९७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७९
तथाऽपि शुद्धनिश्चयेन तदावरणाभावात् पूर्वोक्त लक्षणकेवलज्ञानेन निवृत्तत्वात्सर्वेऽपि जीवा
ज्ञानमयाः
जम्मण-मरण-विमुक्क व्यवहारनयेन यद्यपि जन्ममरणसहितास्तथापि निश्चयेन वीतराग-
निजानन्दैकरूपसुखामृतमयत्वादनाद्यनिधनत्वाच्च शुद्धात्मस्वरूपाद्विलक्षणस्य जन्ममरणनिर्वर्तकस्य
कर्मण उदयाभावाज्जन्ममरणविमुक्ताः
जीव-पएसहिं सयल सम यद्यपि संसारावस्थायां
व्यवहारेणोपसंहारविस्तारयुक्त त्वाद्देहमात्रा मुक्तावस्थायां तु किंचिदूनचरमशरीरप्रमाणास्तथापि
निश्चयनयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वहानिवृद्धयभावात् स्वकीयस्वकीयजीवप्रदेशैः सर्वे
समानाः
सयल वि सगुणहिं एक्क यद्यपि व्यवहारेणाव्याबाधानन्तसुखादिगुणाः संसारावस्थायां
कर्मझंपितास्तिष्ठन्ति, तथापि निश्चयेन कर्माभावात् सर्वेऽपि स्वगुणैरेकप्रमाणा इति अत्र यदुक्तं
ज्ञानावरणथी ढंकायेलुं छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी केवळज्ञानावरणनो अभाव होवाथी पूर्वोक्त
लक्षणवाळा केवळज्ञानथी रचायेल होवाथी सर्वे जीवो ज्ञानमय छे.
‘जम्ममरणविमुक्ताः’
व्यवहारनयथी जोके जन्ममरणसहित छे तोपण निश्चयनयथी वीतराग निजानंद जेनुं एक रूप
छे एवा सुखामृतमय होवाथी अने अनादि अनंत होवाथी अने शुद्धात्मस्वरूपथी विलक्षण जन्म
-मरणने उत्पन्न करनार कर्मना उदयना अभावथी जन्म-मरण रहित छे.
‘जीव पएसहिं सयल सम’ जोके संसार-अवस्थामां व्यवहारनयथी संकोच-विस्तार सहित
होवाथी देहमात्र छे अने मुक्त-अवस्थामां चरमशरीरथी किंचित् न्यून शरीरप्रमाण छे तोपण
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यप्रदेशत्वनी हानि-वृद्धि न होवाथी पोतपोताना जीवप्रदेशोथी
सर्व जीवो समान छे.
‘सयल वि सगुणहिं एक्क’ जोके व्यवहारनयथी अव्याबाध, अनंतसुखादि गुणो संसार-
अवस्थामां कर्मोथी आच्छादित छे तोपण निश्चयनयथी कर्मनो अभाव होवाथी सर्व जीवो
पोतपोताना गुणोथी एकसरखा छे.
ढँका हुआ है, तो भी शुद्ध निश्चयसे केवलज्ञानावरणका अभाव होनेसे केवलज्ञानस्वभावसे सभी
जीव केवलज्ञानमयी हैं
यद्यपि व्यवहारनयकर सब संसारी जीव जन्म-मरण सहित हैं, तो भी
निश्चयनयकर वीतराग निजानंदरूप अतीन्द्रिय सुखमयी हैं, जिनकी आदि भी नहीं और अंत
भी नहीं ऐसे हैं, शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत जन्म मरणके उत्पन्न करनेवाले जो कर्म उनके उदयके
अभावसे जन्म-मरण रहित हैं
यद्यपि संसारअवस्थामें व्यवहारनयकर प्रदेशोंका संकोच
विस्तारको धारण करते हुए देहप्रमाण हैं, और मुक्त - अवस्थामें चरम (अंतिम) शरीरसे कुछ
कम देहप्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं, हानिवृद्धि न
होनेसे अपने प्रदेशोंकर सब समान हैं, और यद्यपि व्यवहारनयसे संसार - अवस्थामें इन जीवोंके
अव्याबाध अनंत सुखादिगुण कर्मोंसे ढँके हुए हैं, तो भी निश्चयनयकर कर्मके अभावसे सभी