अधिकार-२ः दोहा-९८ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८१
मणि जाउ विहाणु यदि चेन्मनसि वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानादित्योदयेन जातः । कोऽसौ ।
प्रभातसमय इति । अत्र यद्यपि १षोडशवर्णिकालक्षणं बहूनां सुवर्णानां मध्ये समानं
तथाप्येकस्मिन् सुवर्णे गृहीते शेषसुवर्णानि सहैव नायान्ति । कस्मात् । भिन्नभिन्नप्रदेशत्वात् । तथा
यद्यपि केवलज्ञानदर्शनलक्षणं समानं सर्वजीवानां तथाप्येकस्मिन् विवक्षितजीवे पृथक्कृते शेषजीवा
सहैव नायान्ति । कस्मात् । भिन्नभिन्नप्रदेशत्वात् । तेन कारणेन ज्ञायते यद्यपि
केवलज्ञानदर्शनलक्षणं समानं तथापि प्रदेशभेदोऽस्तीति भावार्थः ।।९८।।
अथ शुद्धात्मनां जीवजातिरूपेणैकत्वं दर्शयति —
२२६) बंभहँ भुवणि वसंताहँ जे णवि भेउ करंति ।
ते परमप्प – पयासयर जोइय विमलु मुणंति ।।९९।।
प्रभातनो समय थयो होय तो व्यवहारनयथी देहभेद होवा छतां केवळदर्शनरूप निश्चयलक्षणथी
तेमनामां भेद करवामां आवतो नथी.
अहीं, जोके सर्व सुवर्णनुं सोळवलुं लक्षण समान छे तोपण तेमांथी कोई एक सुवर्णने
ग्रहण करतां, बाकीनुं सुवर्ण एक साथे आवी जतुं नथी तेनुं कारण ए छे के सर्व सुवर्णना प्रदेशो
भिन्न-भिन्न छे. तेवी रीते जोके जीवोनुं ज्ञानदर्शनलक्षण समान छे तोपण विवक्षित जीव जुदो
ग्रहण करतां, बाकीना जीवो एक साथे ज आवी जता नथी तेनुं कारण ए छे के सर्व जीवना
प्रदेशो भिन्न-भिन्न छे. ते कारणे एम जणाय छे के केवळज्ञान अने केवळदर्शननुं लक्षण सरखुं
छे तोपण प्रदेशभेद छे, एवो भावार्थ छे. ९८.
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूप सूर्यका उदय हुआ है, और मोह – निद्राके अभावसे
आत्म - बोधरूप प्रभात हुआ है, तो तू सबोंको समान देख । जैसे यद्यपि सोलहवानीके सोने सब
समान वृत्त हैं, तो भी उन सुवर्ण – राशियोंमें से एक सुवर्णको ग्रहण किया, तो उसके ग्रहण
करनेसे सब सुवर्ण साथ नहीं आते, क्योंकि सबके प्रदेश भिन्न हैं, उसी प्रकार यद्यपि केवलज्ञान
दर्शन लक्षण सब जीव समान हैं, तो भी एक जीवका ग्रहण करनेसे सबका ग्रहण नहीं होता ।
क्योंकि प्रदेश सबके भिन्न-भिन्न हैं, इससे यह निश्चय हुआ, कि यद्यपि केवलज्ञान दर्शन
लक्षणसे सब जीव समान हैं, तो भी प्रदेश सबके जुदे-जुदे हैं, यह तात्पर्य जानना ।।९८।।
आगे जातिके कथनसे सब जीवोंकी एक जाति है, परन्तु द्रव्य अनन्त हैं, ऐसा दिखलाते
हैं —
१ पाठान्तरः — षोडशवर्णिकालक्षणं बहूनां सुवर्णानां मध्ये समानं = षोडशवर्णिका समानानां बहूनां सुवर्णानां
मध्ये ।