अधिकार-२ः दोहा-१०३ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८९
अंगइं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । अंगइं सुहुमइं बादरइं अङ्गानि
सूक्ष्मबादराणि जीवानां विहि-वसिं होंति विधिवशाद्भवन्ति अङ्गोद्भवपञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षा-
मूलभूतानि द्रष्टश्रुतानुभूतभोगवाञ्छारूपनिदानबन्धादीनि यान्यपध्यानानि, तद्विलक्षणा यासौ
स्वशुद्धात्मभावना तद्रहितेन जीवेन यदुपार्जितं विधिसंज्ञं कर्म तद्वशेन भवन्त्येव । न केवलमङ्गानि
भवन्ति जे बाल ये बालवृद्धादिपर्यायाः तेऽपि विधिवशेनैव । अथवा संबोधनं १हे बाल अज्ञान ।
जिय पुणु सयल वि तित्तडा जीवाः पुनः सर्वेऽपि तत्प्रमाणा द्रव्यप्रमाणं प्रत्यनन्ताः,
क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेकैकोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाश-
प्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः । क्व । सव्वत्थ वि सर्वत्र लोके । न केवलं लोके सय-काल सर्वत्र
कालत्रये तु । अत्र जीवानां बादरसूक्ष्मादिकं व्यवहारेण कर्मकृतभेदं द्रष्ट्वा विशुद्धदर्शनज्ञान-
भावार्थः — शरीरमां उत्पन्न पांच इन्द्रियोना विषयोनी आकांक्षानुं मूळ कारण एवा,
देखेला, सांभळेला, अने अनुभवेला भोगोनी वांछारूप निदानबंध आदि जे अपध्यानो (दुर्ध्यानो,
माठां ध्यानो) छे तेनाथी विलक्षण जे स्वशुद्धात्मानी भावना छे तेनाथी रहित जीवथी जे
विधिसंज्ञावाळुं कर्म उपार्जित करवामां आव्युं छे. तेना वशथी जीवोना सूक्ष्म, बादर शरीरो थाय छे.
मात्र शरीरो ज थाय छे एटलुं ज नहि पण जे बालवृद्धादि पर्यायो छे ते पण विधिना विशे ज थाय
छे. अथवा संबोधन करे छे के, हे बाल! हे अज्ञान! सर्व जीवो सर्वत्र-लोकमां-मात्र लोकमां ज
नहि, परंतु त्रण काळमां पण तेटला ज प्रमाणवाळा छे; अर्थात् द्रव्यप्रमाणथी अनंता छे अने
क्षेत्रनी अपेक्षाए पण एक एक जीव पण जोके व्यवहारनयथी पोताना देह जेटलो छे तोपण
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेश जेटलो छे.
भावार्थ : — जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मोंके उदयसे होती हैं । अर्थात्
अंगोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेंद्रियोंके विषय उनकी वाँछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे, सुने,
भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना
उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और
बाल-वृद्धादि अवस्थायें होती हैं । ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवको नहीं हैं । हे अज्ञानी जीव,
यह बात तू निःसंदेह जान । ये सभी जीव द्रव्य – प्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्रकी अपेक्षा एक एक
जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना ।
बादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर) जीवोंमें भेद मत जानो । विशुद्ध ज्ञान-
१ पाठान्तरः — हे बाल अज्ञान = बाल हे अज्ञान