३९२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०६
जीव । कतिसंख्योपेतान् । सयल वि समस्तानपि । कथंभूतान्न मन्यते । एक्क-सहाव वीतराग-
निविकल्पसमाधौ स्थित्वा सकलविमलकेवलज्ञानादिगुणैर्निश्चयेनैकस्वभावान् । तासु ण थक्कइ भाउ
समु तस्य न तिष्ठति समभावः । कथंभूतः । भव-सायरि जो णाव संसारसमुद्रे यो
नावस्तरणोपायभूता नौरिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा रागद्वेषमोहान् मुक्त्वा च परमोपशमभावरूपे
शुद्धात्मनि स्थातव्यमित्यभिप्रायः ।।१०५।।
अथ जीवानां योऽसौ भेदः स कर्मकृत इति प्रकाशयति —
२३३) जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ ।
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ ।।१०६।।
जीवानां भेद एव कर्मकृतः कर्म अपि जीवो न भवति ।
येन विभिन्नः भवति तेभ्यः कालं लब्ध्वा कमपि ।।१०६।।
नयथी सकळ विमळ केवळज्ञानादि गुणो वडे एकस्वभावी नथी मानतो तेने संसारसमुद्रने तरवाना
उपायभूत एवो समभाव होतो नथी के जे समभाव संसारसमुद्रने तरवाना साधनरूप नाव छे.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने अने राग-द्वेष-मोहने छोडीने परमोपशमभावरूप शुद्ध
आत्मामां स्थित थवुं, एवो अभिप्राय छे. १०५.
हवे, जीवोना जे कांई भेद छे ते कर्मकृत छे, एम प्रगट करे छेः —
निर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर सबको समान दृष्टिसे नहीं देखता, सकल ज्ञायक परम निर्मल
केवलज्ञानादि गुणोंकर निश्चयनयसे सब जीव एकसे हैं, ऐसी जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके
समभाव नहीं उत्पन्न हो सकता । ऐसा निस्संदेह जानो । कैसा है समभाव, जो संसार समुद्रसे
तारनेके लिये जहाजके समान है । यहाँ ऐसा व्याख्यान जानकर राग-द्वेष-मोहको तजकर
परमशांतभावरूप शुद्धात्मामें लीन होना योग्य है ।।१०५।।
आगे जीवोंमें जो भेद हैं, वह सब कर्मजनित हैं, ऐसा प्रगट करते हैं —
गाथा – १०६
अन्वयार्थ : — [जीवानां ] जीवोंमें [भेदः ] नर-नारकादि भेद [कर्मकृत एव ] कर्मोंसे
ही किया गया है, और [कर्म अपि ] कर्म भी [जीवः ] जीव [न भवति ] नहीं हो सकता ।
[येन ] क्योंकि वह जीव [कमपि ] किसी [कालं ] समयको [लब्ध्वा ] पाकर [तेभ्यः ] उन
कर्मोंसे [विभिन्नः ] जुदा [भवति ] हो जाता है ।