Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 111 (Adhikar 2)*2.

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अधिकार-२ः दोहा-१११२ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०३
२३९) काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं
अहिलससि किं ण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं ।।१११।।
कृत्वा नग्नरूपं बीभत्सं दग्धमृतकसद्रशम्
अभिलषसि किं न लज्जसे भिक्षायां भोजनं मिष्टम् ।।१११।।
काऊण इत्यादि काऊण कृत्वा किम् णग्गरूवं नग्नरूपं निर्ग्रन्थं जिनरूपम्
कथंभूतम् बीभस्सं (च्छं ?) भयानकम् पुनरपि कथंभूतम् दड्ढ-मडय-सारिच्छं दग्धमृतक-
द्रशम् एवंविधिं रूपं धृत्वा हे तपोधन अहिलससि अभिलाषं करोषि किं ण लज्जसि लज्जां
किं न करोषि किं कुर्वाणः सन् भिक्खाए भोयणं मिट्ठं भिक्षायां भोजनं मिष्टं इति मन्यमानः
सन्निति श्रावकेण तावदाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानं तात्पर्येण दातव्यम् आहारदानं येन दत्तं तेन
भावार्थश्रावके तो तात्पर्यपूर्वक आहार, अभय, भैषज्य अने शास्त्र ए चार
प्रकारनुं दान आपवुं जोईए. जेणे आहारदान आप्युं तेणे शुद्ध आत्मानी अनुभूतिनुं साधक बाह्य
अभ्यंतर भेदथी भेदवाळुं बार प्रकारनुं तपश्चरणनुं दान आप्युं छे. तेणे शुद्ध आत्मानी
भावनास्वरूप संयमना साधक एवा देहनी स्थिति पण करी छे अने तेणे शुद्धात्मोपलंभनी
प्राप्तिरूप मोक्षगति पण आपी छे.
जोके आ प्रमाणेना गुणथी विशिष्ट चार प्रकारना दान श्रावको आपे छे तोपण निश्चय
गाथा१११
अन्वयार्थ :[बीभत्सं ] भयानक देहके मैलसे युक्त [दग्धमृतकसदृशम् ] जले हुए
मुरदेके समान रूपरहित ऐसे [नग्नरूपं ] वस्त्र रहित नग्नरूपको [कृत्वा ] धारण करके हे साधु,
तू [भिक्षायां ] परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें [मिष्टम् ] स्वादयुक्त [भोजनं ]
आहारकी [अभिलषसि ] इच्छा करता है, तो तू [किं न लज्जस ] क्यों नहीं शरमाता ? यह
बड़ा आश्चर्य है
भावार्थ :पराये घर भिक्षाको जाते मिष्ट आहारकी इच्छा धारण करता है, सो तुझे
लाज नहीं आती ? इसलिये आहारका राग छोड़ अल्प और नीरस, आहार उत्तम कुली श्रावकके
घर साधुको लेना योग्य है
मुनिको रागभाव रहित आहार लेना चाहिये स्वादिष्ट सुंदर
आहारका राग करना योग्य नहीं है और श्रावकको भी यही उचित है, कि भक्तिभावसे
मुनिको निर्दोष आहार देवे, जिसमें शुभका दोष न लगे और आहारके समय ही आहारमें मिली
हुई निर्दोष औषधि दे, शास्त्रदान करे, मुनियोंका भय दूर करे, उपसर्ग निवारण करे यही