Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 12 (Adhikar 1).

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हवे त्रण प्रकारना आत्माने जाणीने बहिरात्माने छोडीने स्वसंवेदनज्ञान वडे तुं परम
परमात्माने भाव एम कहे छेः
भावार्थःअहीं स्वसंवेदनज्ञान वडे जे आ परमात्मा जणायो ते ज उपादेय छे ते
भावार्थ छे.
अथ त्रिविधात्मानं ज्ञात्वा बहिरात्मानं विहाय स्वसंवेदनज्ञानेन परं परमात्मानं भावय
त्वमिति प्रतिपादयति
१२) अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ
मुणि सण्णाणेँ णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ।।१२।।
आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु मूढं मुञ्च भावम्
मन्यस्व स्वज्ञानेन ज्ञानमयं यः परमात्मस्वभावः ।।१२।।
अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ हे प्रभाकरभट्ट आत्मानं त्रिविधं मत्वा
लघु शीघ्रं मूढं बहिरात्मस्वरूपं भावं परिणामं मुञ्च मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्पसहाउ
पश्चात् त्रिविधात्मपरिज्ञानानन्तरं मन्यस्व जानीहि केन करणभूतेन अन्तरात्मलक्षण-
३४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२
आगे तीन प्रकार आत्माको जानकर बहिरात्मपना छोड़ स्वसंवेदन ज्ञानकर तू
परमात्माका ध्यान कर, इसे कहते हैं
गाथा१२
अन्वयार्थ :[आत्मानं त्रिविधं मत्वा ] हे प्रभाकरभट्ट, तू आत्माको तीन प्रकारका
जानकर [मूढं भावम् ] बहिरात्म स्वरूप भावको [लघु ] शीघ्र ही [मुञ्च ] छोड़, और [यः ]
जो [परमात्मस्वभावः ] परमात्माका स्वभाव है, उसे [स्वज्ञानेन ] स्वसंवेदनज्ञानसे अंतरात्मा
होता हुआ [मन्यस्व ] जान
वह स्वभाव [ज्ञाननयः ] केवलज्ञानकर परिपूर्ण है
भावार्थ :जो वीतराग स्वसंवेदनकर परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है
यहाँ शिष्यने प्रश्न किया था, जो स्वसंवेदन अर्थात् अपनेकर अपनेको अनुभवना इसमें वीतराग
विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्वसंवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही
इसका
समाधान श्रीगुरुने कियाकि विषयोंके आस्वादनसे भी उन वस्तुओंके स्वरूपका जानपना होता
है, परंतु रागभावकर दूषित है, इसलिये निजरस आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशामें स्वरूपका
यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है
तथा स्वसंवेदनज्ञान प्रथम अवस्थामें चौथे पाँचवें
गुणस्थानवाले गृहस्थके भी होता है, वहाँ पर सराग देखनेमें आता है, इसलिये रागसहित