निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूपे परिणमतो अन्तरात्मा छे, परम भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित
-ब्रह्म-शुद्धबुद्ध-एक स्वभावी परमात्मा छे. शुद्ध, बुद्ध स्वभावनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे.
शुद्ध अर्थात् रागादिथी रहित, बुद्ध अर्थात् अनंतज्ञानादि चतुष्टय सहित, ए प्रमाणे शुद्ध,
बुद्ध, स्वभावनुं स्वरूप सर्वत्र जाणवुं. ए रीते आत्मा त्रण प्रकारे छे.
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिथी उत्पन्न, एक (केवळ) सदानंदरूप, सुखामृत स्वभावने नहि
प्राप्त करतो, जे देहने ज आत्मा माने छे ते मूढात्मा छे.
अहीं (आ त्रण प्रकारना आत्मामांथी) बहिरात्मा हेय छे, तेनी अपेक्षाए जो के
अन्तरात्मा उपादेय छे तो पण सर्व प्रकारे उपादेयभूत परमात्मानी अपेक्षाए ते हेय छे. एवो
तात्पर्यार्थ छे. १३.
हवे परमसमाधिमां स्थित थयेलो जे देहथी भिन्न ज्ञानमय परमात्माने जाणे छे ते
अन्तरात्मा छे एम कहे छेः —
विचक्षणो वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतोऽन्तरात्मा, ब्रह्म शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा ।
शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं कथ्यते — शुद्धो रागादिरहितो बुद्धोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित इति
शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । स च कथंभूतः ब्रह्म । परमो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म-
रहितः । एवमात्मा त्रिविधो भवति । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसदानन्दैकसुखामृतस्वभावमलभमानः सन् देहमेवात्मानं यो मनुते
जानाति स जनो लोको मूढात्मा भवति इति । अत्र बहिरात्मा हेयस्तदपेक्षया
यद्यप्यन्तरात्मोपादेयस्तथापि सर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मापेक्षया स हेय इति तात्पर्यार्थः ।।१३।।
अथ परमसमाधिस्थितः सन् देहविभिन्नं ज्ञानमयं परमात्मानं योऽसौ जानाति
सोऽन्तरात्मा भवतीति निरूपयति —
१४) देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।।
अधिकार-१ः दोहा-१३ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७
हुए परमानंद सुखामृतको नहीं पाता हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है । इन तीन प्रकारके आत्माओंमेंसे
बहिरात्मा तो त्याज्य ही है — आदर योग्य नहीं है । इसकी अपेक्षा यद्यपि अंतरात्मा अर्थात्
सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरहसे उपादेय (ग्रहण करने योग्य) जो परमात्मा उसकी
अपेक्षा वह अंतरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना ।।१३।।
आगे परमसमाधिमें स्थित, देहसे भिन्न ज्ञानमयी (उपयोगमयी) आत्माको जो जानता
है, वह अन्तरात्मा है, ऐसा कहते हैं —