अथ शुद्धात्मप्रतिपक्षभूतकर्मदेहप्रतिबद्धोऽप्यात्मा निश्चयनयेन सकलो न भवतीति
ज्ञापयति —
३६) कम्म-णिबद्धु वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि ।
होइ ण सयलु कया वि फु डु मुणि परमप्पउ सो जि ।।३६।।
कर्मनिबद्धोऽपि योगिन् देहे वसन्नपि य एव ।
भवति न सकलः कदापि स्फु टं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।३६।।
कर्मनिबद्धोऽपि हे योगिन् देहे वसन्नपि य एव न भवति सकलः क्वापि काले स्फु टं
मन्यस्व जानीहि परमात्मानं तमेवेति । अतो विशेषः — परमात्मभावनाविपक्षभूतैः रागद्वेषमोहैः
समुपार्जितैः कर्मभिरशुद्धनयेन बद्धोऽपि तथैव देहस्थितोऽपि निश्चयनयेन सकलः सदेहो न
आगे शुद्धात्मासे जुदे कर्म और शरीर इन दोनोंकर अनादिकर बँधा हुआ यह आत्मा
है, तो भी निश्चयनयकर शरीरस्वरूप नहीं है, यह कहते हैं —
गाथा – ३६
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी [यः ] जो यह आत्मा [कर्मनिबद्धोऽपि ] यद्यपि
कर्मोंसे बँधा है, [देहे वसन्नपि ] और देहमें रहता भी है, [कदापि ] परंतु कभी [सकलः न
भवति ] देहरूप नहीं होता, [तमेव ] उसीको तू [परमात्मानं ] परमात्मा [स्फु टं ] निश्चयसे
[मन्यस्व ] जान ।
भावार्थ : — परमात्माकी भावनासे विपरीत जो राग, द्वेष, मोह हैं, उनकर यद्यपि
व्यवहारनयसे बँधा है, और देहमें तिष्ठ रहा है, तो भी निश्चयनयसे शरीररूप नहीं है, उससे जुदा
ही है, किसी कालमें भी यह जीव जड़ तो न हुआ, न होगा, उसे हे प्रभाकरभट्ट, परमात्मा
हवे शुद्ध आत्माथी प्रतिपक्षभूत कर्म अने देहथी प्रतिबद्ध होवा छतां पण आत्मा
निश्चयथी देहरूप थतो नथी एम कहे छेः —
भावार्थः — अशुद्धनयथी परमात्मानी भावनाथी विपक्षभूत रागद्वेषमोहथी उपार्जित
कर्मोथी बंधायेलो होवा छतां पण, तेम ज देहमां रहेवा छतां पण, निश्चयथी जे क्यारेय
देहरूप थतो नथी, ते परमात्माने ज हे प्रभाकरभट्ट! तुं जाण, वीतराग-स्वसंवेदनज्ञानथी
भाव एवो अर्थ छे.
अत्रे निर्विकल्प समाधिमां जेओ रत छे तेमने सदाय ते परमात्मा उपादेय छे, परंतु
अधिकार-१ः दोहा-३६ ]परमात्मप्रकाशः [ ६७