हरिहरादिरिति । तद्यथा । योऽसौ पूर्वं बहुधा शुद्धात्मा भणितः स एव शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन
शुद्धोऽपि सन् अनादिसंतानागतज्ञानावरणादिकर्मबन्धप्रच्छादितत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पसहजा-
नन्दैकसुखास्वादमलभमानो व्यवहारनयेन त्रसो भवति, स्थावरो भवति, स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गो
भवति, तेन कारणेन जगत्कर्ता भण्यते, नान्यः कोऽपि परकल्पितपरमात्मेति । अत्रायमेव
शुद्धात्मा परमात्मोपलब्धिप्रतिपक्षभूतवेदत्रयोदयजनितं रागादिविकल्पजालं निर्विकल्पसमाधिना
यदा विनाशयति तदोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकत्वादुपादेय इतिभावार्थः ।।४०।।
अथ यस्य परमात्मनः केवलज्ञानप्रकाशमध्ये जगद्वसति जगन्मध्ये सोऽपि वसति तथापि
तद्रूपो न भवतीति १कथयति —
कर्ता कहा है, और शुद्धपनेरूप परिणत हुआ विभाव (विकार) परिणामोंको हरता है, इसलिये
हर्त्ता है । यह जीव ही ज्ञान अज्ञान दशाकर कर्त्ता-हर्त्ता है और दूसरे कोई भी हरिहरादिक कर्त्ता
-हर्त्ता नहीं है । पूर्व जो शुद्धात्मा कहा था, वह यद्यपि शुद्धनयकर शुद्ध है, तो भी अनादिसे
संसारमें ज्ञानावरणादि कर्म बंधकर ढका हुआ वीतराग, निर्विकल्पसहजानन्द, अद्वितीय सुखके
स्वादको न पानेसे व्यवहारनयकर त्रस और स्थावररूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंगादि सहित होता
है, इसलिये जगत्कर्त्ता कहा जाता है अन्य कोई भी दूसरोंकर कल्पित परमात्मा नहीं है । यह
आत्मा ही परमात्माकी प्राप्तिके शत्रु तीन वेदों (स्त्रीलिंगादि) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-
जालोंको निर्विकल्पसमाधिसे जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष-सुखका
कारण होनेसे उपादेय हो जाता है ।।४०।।
आगे जिस परमात्माके केवलज्ञानस्वरूप प्रकाशमें जगत् बस रहा है, और जगत्के
द्रव्यार्थिकनयथी शुद्ध होवा छतां, पण अनादिथी संतानरूपे चाल्या आवता ज्ञानावरणादि
कर्मबंधथी ढंकायेलो होवाथी वीतरागनिर्विकल्प सहजानंदरूप एक (केवळ) सुखास्वादने नहि
पामतो, व्यवहारनयथी त्रस थाय छे, स्थावर थाय छे, तथा स्त्री-पुरुष के नपुंसकलिंगरूप थाय
छे, ते कारणे तेने जगतनो कर्ता कहेवामां आवे छे, ए सिवाय परकल्पित (बीजाओए कल्पेल)
बीजो कोई परमात्मा जगतकर्ता नथी.
अहीं आ ज शुद्ध आत्मा, निर्विकल्प समाधि वडे परमात्मानी प्राप्तिथी प्रतिपक्षभूत त्रण
प्रकारना वेदोदय जनित रागादि विकल्पनी जाळनो ज्यारे नाश करे छे, त्यारे (आ ज शुद्धात्मा)
उपादेयभूत मोक्षसुखनो साधक होवाथी उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ४०.
हवे जे परमात्माना केवळज्ञानरूप प्रकाशमां जगत रहे छे, अने ते परमात्मा पण
जगतमां रहे छे, तो पण ते ते-रूप (जगतरूप) थतो नथी एम कहे छेः —
१. पाठान्तरः — कथयति = कथयन्ति
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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४०