‘‘इत्यातिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् ।
संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’
artha — atidurlabh bodhi pAmIne jo jIv pramAdI thAy to te varAk (bichAro, rank)
puruSh sansArarUpI bhayankar araNyamAn ghaNA kAL sudhI bhramaN kare chhe.
paN bodhisamAdhinA abhAve pUrvokta sansAramAn bhramaN karatA men shuddha AtmasamAdhithI utpanna
vItarAg paramAnandarUp sukhAmRut jarAy paN prApta na karyun, paN tenAthI viparIt AkuLatAnA utpAdak
vividh shArIrik ane mAnasik chAr gatinA bhramaNamAn thatAn dukho ja prApta karyA.
atre je vItarAg paramAnandarUp sukhanI prApti na thatAn, A jIv anAdikALathI bhaTakyo
te ja sukh upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 9.
have je paramAtma svabhAvanI prApti na thatAn, jIv anAdikALathI bhaTakyo te
paramAtmasvabhAvanun vyAkhyAn shrIprabhAkarabhaTTa pUchhe chhe —
समाधिरिति बोधिसमाधिलक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । तथा चोक्त म् — ‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां
बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’ परं किंतु
बोधिसमाध्यभावे पूर्वोक्त संसारे भ्रमतापि मया शुद्धात्मसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखामृतं
किमपि न प्राप्तं किंतु तद्विपरीतमाकुलत्वोत्पादकं विविधशारीरमानसरूपं चतुर्गतिभ्रमणसंभवं
दुःखमेव प्राप्तमिति । अत्र यस्य वीतरागपरमानन्दसुखस्यालाभे भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयमिति
भावार्थः ।।९।।
अथ यस्यैव परमात्मस्वभावस्यालाभेऽनादिकाले भ्रमितो जीवस्तमेव पृच्छति —
१०) चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ।।१०।।
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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-10
‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां’’ इत्यादि । इसका अभिप्राय ऐसा है, कि यह महान दुर्लभ जो
जैनशास्त्रका ज्ञान है, उसको पाके जो जीव प्रमादी हो जाता है, वह रंक पुरुष बहुत
कालतक संसाररूपी भयानक वनमें भटकता है । सारांश यह हुआ, कि वीतराग परमानंद
सुखके न मिलनेसे यह जीव संसाररूपी वनमें भटक रहा है, इसलिये वीतराग परमानंद
सुख ही आदर करने योग्य है ।।९।।
आगे जिस परमात्म-स्वभावके अलाभमें यह जीव अनादि कालसे भटक रहा था, उसी
परमात्मस्वभावका व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है —