अथ यस्य कर्माणि यद्यपि सुखदुःखादिकं जनयन्ति तथापि स न जनितो न हृत
इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयति —
४८) कम्महिँ जासु जणंतहिँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि ।
किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।।४८।।
कर्मभिः यस्य जनयद्भिरपि निजनिजकार्यं सदापि ।
किमपि न जनितो हृतः नैव तं परमात्मानं भावय ।।४८।।
कर्मभिर्यस्य जनयद्भिरपि । किम् । निजनिजकार्यं सदापि तथापि किमपि न जनितो
हृतश्च नैव तं परमात्मानं भावयत । यद्यपि व्यवहारनयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रतिबन्धकानि कर्माणि
आगे जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे यद्यपि सुख-दुखादिको उपजाते हैं, तो भी वह आत्मा
किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ, किसीने बनाया नहीं, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते
हैं —
गाथा – ४८
अन्वयार्थ : — [कर्मभिः ] ज्ञानावरणादि कर्म [सदापि ] हमेशा [निजनिजकार्यं ]
अपने अपने सुख-दुःखादि कार्यको [जनयद्भिरपि ] प्रगट करते हैं,तो भी शुद्ध निश्चयनयकर
[यस्य ] जिस आत्माका [किमपि ] कुछ भी अर्थात् अनंतज्ञानादिस्वरूप [न जनितः ] न तो
नया पैदा किया और [नैव हृतः ] न विनाश किया, और न दूसरी तरहका किया, [तं ] उस
[परमात्मानं ] परमात्माको [भावय ] तू चिंतवन कर ।
भावार्थ : — यद्यपि व्यवहारनयसे शुद्धात्मस्वरूपके रोकनेवाले ज्ञानावरणादिकर्म
अपने अपने कार्यको करते हैं, अर्थात् ज्ञानावरण तो ज्ञानको ढँकता है, दर्शनावरणकर्म
दर्शनको आच्छादन करता है, वेदनीय साता-असाता उत्पन्न करके अतीन्द्रियसुखको घातता
है, मोहनीय सम्यक्त्व तथा चारित्रको रोकता है, आयुकर्म स्थितिके प्रमाण शरीरमें राखता
है, अविनाशी भावको प्रगट नहीं होने देता, नामकर्म नाना प्रकार गति जाति शरीरादिकको
have karmo joke tene sukhadukhAdik upajAve chhe to paN te paramAtmA (tenAthI) utpanna
karAto nathI, ke nAsh karAto nathI evo abhiprAy manamAn rAkhIne sUtra kahe chhe —
bhAvArtha — jo ke vyavahAranayathI shuddhAtmasvarUpanA pratibandhak karmo sukh-dukhAdik
adhikAr-1 dohA-48 ]paramAtmaprakAsha [ 83