Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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कथंभूतम् । इन्द्रियजनितं हे योगिन् तेन कारणेन जीवं जडमपि विजानीहि । तद्यथा । छद्मस्थानां
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले स्वसंवेदनज्ञाने सत्यपीन्द्रियजनितं ज्ञानं नास्ति, केवलज्ञानिनां
पुनः सर्वदैव नास्ति तेन कारणेन जडत्वमिति । अत्र इन्द्रियज्ञानं हेयमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमिति
भावार्थः ।।५३।।
अथ शरीरनामकर्मकारणरहितो जीवो न वर्धते न च हीयते तेन कारणेन
मुक्त श्चरमशरीरप्रमाणो भवतीति निरूपयति —
५४) कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण ।
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिँ तेण ।।५४।।
कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन ।
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्रुवन्ति तेन ।।५४।।
bhAvArtha : — Chadmastha jIvone vItarAg nirvikalpa samAdhinA kALamA.n svasa.nvedanaj~nAn hovA
ChatA.n paN indriyajanit j~nAn hotu.n nathI, vaLI kevaLaj~nAnIone (indriyajanit j~nAn) koI vakhate
hotu.n nathI, te kAraNe jIv ‘jaD’ Che.
ahI.n indriyaj~nAn hey Che, atIndriy j~nAn upAdey Che, evo bhAvArtha Che. 53.
have (hAnivR^iddhinA kAraNarUp) sharIranAmakarmanA kAraNathI rahit jIv vadhato nathI ane
ghaTato nathI, tethI mukta jIv ‘charamasharIrapramAN Che’ em kahe Che : —
नाशको प्राप्त होता है, हे योगी, उसी कारणसे जीवको जड़ भी जानो । महामुनियोंके
वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके समयमें स्वसंवेदनज्ञान होनेपर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है, और
केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही है, इसलिये
इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है । यहाँपर बाह्य इन्द्रिय-
ज्ञान सब तरह हेय है और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ।।५३।।
आगे शरीरनामा नामकर्मरूप कारणसे रहित यह जीव न घटता है, और न बढ़ता है,
इस कारण मुक्त -अवस्थामें चरम-शरीरसे कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीरप्रमाण
भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ५४
अन्वयार्थ : — [येन ] जिस हेतु [कारणविरहितः ] हानि-वृद्धिका कारण शरीर
adhikAr-1 : dohA-54 ]paramAtmaprakAsh: [ 91