Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
chUlikAvyAkhyAn Che. A rIte bIjI pAtanikA jANavI.
(1)
pratham mahAdhikAr
have pratham pAtanikAnA abhiprAy pramANe vyAkhyAn karavAmA.n AvatA.n, gra.nthakAr
shrIyogIndrAchArya gra.nthanI AdimA.n ma.ngaL arthe iShTadevatAne (shrI siddhaparamAtmAne) namaskAr karatA
thakA ek dohakasUtra kahe Che : —
पर्यन्तमभेदरत्नत्रयमुख्यतयाचूलिकाव्याख्यानं, इति द्वितीयपातनिका ज्ञातव्या ।।
इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण व्याख्याने क्रियमाणे ग्रन्थकारो ग्रन्थस्यादौ
मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणः सन् दोहकसूत्रमेकं “प्रतिपादयति —
१) जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि ।
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि ।।१।।
ये जाता ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कान् दग्ध्वा ।
नित्यनिरञ्जनज्ञानमयास्तान् परमात्मनः नत्वा ।।१।।
8 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-1 : dohA-1
पर्यंत विशेषवर्णन है, उसके बाद ‘उक्तं च’ काे छोड़कर एक सौ सात दोहा पर्यंत
अभेदरत्नत्रयकी मुख्यताकर चूलिका व्याख्यान है । इस तरह दूसरी पातनिका जाननी चाहिये ।
अब, प्रथम पातनिकाके अभिप्रायसे व्याख्यान किया जाता है, उसमें ग्रंथकर्ता
श्री योगीन्द्राचार्यदेव ग्रंथके आरंभमें मंगलके लिए इष्टदेवता श्री भगवानको नमस्कार करते
हुए एक दोहा छंद कहते है ।
प्रथम महाधिकार
गाथा – १
अन्वयार्थ : — [ये ] जो भगवान् [ध्यानाग्निना ] ध्यानरूपी अग्निसे [कर्म-
कलङ्कान् ] पहले कर्मरूपी मैलोंको [दग्ध्वा ] भस्म क रके [नित्यनिरंजनज्ञानमयाः जाताः ]
नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, [तान् ] उन [परमात्मनः ] सिद्धोंको
[नत्वा ] नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ । यह संक्षेप व्याख्यान
किया ।
* pAThAntar : — प्रतिपादयति = प्रतिपादयति । तद्यथा--