Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-92 ]paramAtmaprakAsh: [ 371
अथ ये ख्यातिपूजालाभनिमित्तं शुद्धात्मानं त्यजन्ति ते लोहकीलनिमित्तं देवं देवकुलं च
दहन्तीति कथयति —
२१९) लाहहँ कित्तिहि कारणिण जे सिव-संगु चयंति ।
खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउलु देउ डहंति ।।९२।।
लाभस्य कीर्तेः कारणेन ये शिवसंगं त्यजन्ति ।
कीलानिमित्तं तेऽपि मुनयः देवकुलं देउ दहन्ति ।।९२।।
लाभकीर्तिकारणेन ये केचन शिवसंगं शिवशब्दवाच्यं निजपरमात्माध्यानं त्यजन्ति ते
मुनयस्तपोधनाः । किं कुर्वन्ति । लोहकीलिकाप्रायं निःसारेन्द्रियसुखनिमित्तं देवशब्दवाच्यं
vanitA AdimA.n Asakta thAy Che te bhujA vaDe magarAdithI bharelA bhaya.nkar samudrane tarIne gAyanA
paganI kharImA.n rahelA pANImA.n DUbe Che.) 91.
have, jeo khyAti, pUjA, lAbhanA nimitte shuddhAtmAne ChoDe Che teo loDhAnA khIlA mATe
dev ane devakuLane bALe Che, em kahe Che : —
gAthA – 92
bhAvArtha: — je koI munio-tapodhano-lAbh ane kIrti mATe shivashabdathI vAchya nij
paramAtmAnA dhyAnane ChoDI de Che teo loDhAnA khIlA samAn niHsAr indriyasukh mATe dev
आगे जो अपनी प्रसिद्धि, (बड़ाई) प्रतिष्ठा और परवस्तुका लाभ इन तीनोंके लिए
आत्मध्यानको छोड़ते हैं, वे लोहेके कीलेके लिए देव तथा देवालयको जलाते हैं —
गाथा – ९२
अन्वयार्थ : — [ये ] जो कोई [लाभस्य ] लाभ [कीर्तिः कारणेन ] और कीर्तिके
कारण [शिवसंग ] परमात्माके ध्यानको [त्यजंति ] छोड़ देते हैं, [ते अपि मुनयः ] वे ही मुनि
[कीलानिमित्तं ] लोहेके कीलेके लिए अर्थात् कीलेके समान असार इंद्रिय – सुखके निमित्त
[देवकुलं ] मुनिपद योग्य शरीररूपी देवस्थानको तथा [देवं ] आत्मदेवको [दहंति ] भवकी
आतापसे भस्म कर देते हैं ।
भावार्थ : — जिस समय ख्याति, पूजा, लाभके अर्थ शुद्धात्माकी भावनाको छोड़कर
अज्ञान भावों में प्रवर्तन होता हैं, उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंका बंध होता है । उस
ज्ञानावरणादिके बंधसे ज्ञानादि गुणका आवरण होता है । केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढँक जाता