Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-93 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-93 ]paramAtmaprakAsh: [ 373
अथ यो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेणात्मानं महान्तं मन्यते स परमार्थं न जानातीति
दर्शयति
२२०) अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गुरुयउ गंथहि तत्थु
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु ।।९३।।
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः गुरुकं ग्रन्थैः तथ्यम्
स परमार्थेन जिनो भणति नैव बुध्यते परमार्थम् ।।९३।।
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः कथंभूतं मन्यते गुरुकं महान्तम् कैः
ग्रन्थैर्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहैस्तथ्यं सत्यं स पुरुषः परमार्थेन वस्तुवृत्त्या नैव बुध्यते परमार्थमिति जिनो
वदति
तथाहि निर्दोषिपरमात्मविलक्षणैः पूर्वसूत्रोक्त सचित्ताचित्तमिश्रपरिग्रहैर्ग्रन्थरचनारूपशब्द-
शास्त्रैर्वा आत्मानं महान्तं मन्यते यः स परमार्थशब्दवाच्यं वीतरागपरमानन्दैकस्वभावं परमात्मानं
have, je bAhya abhya.ntar parigrahathI potAne mahAn mAne Che te paramArthane jANato nathI,
em darshAve Che :
bhAvArtha:nirdoSh paramAtmAthI vilakShaN pUrva sUtramA.n kahelA sachit, achit ane mishra
parigrahothI athavA gra.ntharachanArUp shabdothI-shAstrothI-potAne mahAn mAne Che, te ‘paramArtha’ shabdathI
vAchya, vItarAg paramAna.nd ja jeno ek svabhAv Che evA paramAtmAne jANato nathI, e tAtparyArtha
Che. 93.
आगे जो बाह्य अभ्यंतर परिग्रहसे अपनेको महंत मानता है, वह परमार्थको नहीं जानता,
ऐसा दिखलाते हैं
गाथा९३
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [मुनिः ] मुनि [ग्रंथैः ] बाह्य परिग्रहसे [आत्मानं ]
अपनेको [गुरकं ] महंत (बड़ा) [मन्यते ] मानता है, अर्थात् परिग्रहसे ही गौरव जानता है,
[तथ्यम् ] निश्चयसे [सः ] वही पुरुष [परमार्थेन ] वास्तवमें [परमार्थम् ] परमार्थको [नैव
बुध्यते ] नहीं जानता, [जिनः भणति ] ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं
भावार्थ :निर्दोष परमात्मासे पराङ्मुख जो पूर्वसूत्रमें कहे गए सचित्त, अचित्त, मिश्र
परिग्रह हैं, उनसे अपनेको महंत मानता है, जो मैं बहुत पढ़ा हूँ ऐसा जिसके अभिमान है,
वह परमार्थ यानी वीतराग परमानंदस्वभाव निज आत्माको नहीं जानता आत्म - ज्ञानसे रहित है,
यह निःसंदेह जानो ।।९३।।