Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-95 ]paramAtmaprakAsh: [ 375
तया सूत्राष्टकेन तृतीयमन्तरस्थलं समाप्तम् । अत ऊर्ध्वं त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं शुद्धनिश्चयेन सर्वे
जीवाः केवलज्ञानादिगुणैः समानास्तेन कारणेन षोडशवर्णिकासुवर्णवद्भेदो नास्तीति
प्रतिपादयति ।
तद्यथा —
२२२) जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ ।
अच्छुउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ।।९५।।
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम् ।
तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां स तस्य करोति न भेदम् ।।९५।।
जो इत्यादि । पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । जो यः भत्तउ भक्त : । कस्य ।
रयण-त्तयहं रत्नत्रयस्य तसु तस्य पुरुषस्य मुणि मन्यस्व जानीहि । किम् । लक्खणु एउ लक्षणं
sUtrothI trIju.n antarasthaL samApta thayu.n.
enA paChI ter sUtra sudhI shuddhanishchayanayathI sarve jIvo kevaLaj~nAnAdi guNothI-samAn Che,
te kAraNe soLavalA suvarNanI jem bhed nathI, em kahe Che.
te A pramANe : —
bhAvArtha: — je koI vItarAgasvasa.nvedanavALo j~nAnI nishchayano (nishchayanayano) athavA
दोहोंका तीसरा अंतरस्थल पूर्ण हुआ । आगे तेरह दोहों तक शद्ध निश्चयसे सब जीव
केवलज्ञानादिगुणसे समान हैं, इसलिये सोलहवान (ताव) के सुवर्णकी तरह भेद नहीं है, सब
जीव समान हैं, ऐसा निश्चय करते हैं ।
वह ऐसे हैं —
गाथा – ९५
अन्वयार्थ : — [यः ] जो मुनि [रत्नत्रयस्य ] रत्नत्रयकी [भक्तः ] आराधना (सेवा)
करनेवाला है, [तस्य ] उसके [इदम् लक्षणं ] यह लक्षण [मन्यस्व ] जानना कि [कस्यामपि
कुडयां ] किसी शरीरमें जीव [तिष्ठतु ] रहे, [सः ] वह ज्ञानी [तस्य भेदम् ] उस जीवका भेद
[न करोति ] नहीं करता, अर्थात् देहके भेदसे गुरुता लघुताका भेद करता है, परंतु ज्ञानदृष्टिसे
सबको समान देखता है ।
भावार्थ : — वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी निश्चयरत्नत्रयके आराधकका ये लक्षण