Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-105 ]paramAtmaprakAsh: [ 391
यो मनुते शत्रुमित्रजीवितमरणलाभादिसमताभावनारूपवीतरागपरमसामायिकं कृत्वा योऽसौ
जीवानां शुद्धसंग्रहनयेनैकत्वं मन्यते सो अप्पा जाणेइ स वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं
शत्रुमित्रादिविकल्पकल्लोलमालारहितमात्मानं जानातीति भावार्थः ।।१०४।।
अथ योऽसौ सर्वजीवान् समानान्न मन्यते तस्य समभावो नास्तीत्यावेदयति —
२३२) जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव ।
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव ।।१०५।।
यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान् ।
तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौः ।।१०५।।
जो णवि इत्यादि । जो णवि मण्णइ यो नैव मन्यते । कान् । जीव जीवान् जिय हे
-paramasAmAyik karIne je shuddhasa.ngrahanayathI sarva jIvone ekarUpe jANe Che te vItarAg sahajAna.nd
jeno ek svabhAv Che evA, shatru, mitra Adi vikalponI kallolamALAthI rahit AtmAne jANe
Che. 104.
have, je sarva jIvone samAn jANato nathI tene samabhAv hoto nathI, em kahe Che.
bhAvArtha: — je, samasta jIvone vItarAg nirvikalpa samAdhimA.n sthit thaIne nishchay-
सबोंमें समभावरूप जो वीतराग परमसामायिकचारित्र उसके प्रभावसे जो जीवोंको शुद्ध
संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निज स्वरूपको जानता है । जो
निजस्वरूप, वीतराग सहजानंद एक स्वभाव तथा शत्रु-मित्र आदि विकल्प - जालसे रहित है,
ऐसे निजस्वरूपको समताभावके बिना नहीं जान सकता ।।१०४।।
आगे जो सब जीवोंको समान नहीं मानता, उसके समभाव नहीं हो सकता, ऐसा कहते
हैं —
गाथा – १०५
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [यः ] जो [सकलानपि ] सभी [जीवान् ] जीवोंको
[एकस्वभावान् ] एक स्वभाववाले [नैव मन्यते ] नहीं जानता, [तस्य ] उस अज्ञानीके [समः
भावः ] समभाव [न तिष्ठति ] नहीं रहता, [यः ] जो समभाव [भवसागरे ] संसार - समुद्रके
तैरनेको [नौः ] नावके समान है ।
भावार्थ : — जो अज्ञानी सब जीवों को समान नहीं मानता, अर्थात् वीतराग