Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
404 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-2 : dohA-111✽3
शुद्धात्मानुभूतिसाधकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं तपश्चरणं दत्तं भवति । शुद्धात्मभावना-
लक्षणसंयमसाधकस्य देहस्यापि स्थितिः कृता भवति । शुद्धात्मोपलंभप्राप्तिरूपा भवान्तरगतिरपि
दत्ता भवति । यद्यप्येवमादिगुणविशिष्टं चतुर्विधदानं श्रावकाः प्रयच्छन्ति तथापि निश्चयव्यवहार-
रत्नत्रयाराधकतपोधनेन बहिरङ्गसाधनीभूतमाहारादिकं किमपि गृह्णतापि स्वस्वभावप्रतिपक्षभूतो
मोहो न कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।१११✽२।।
अथ : —
२४०) जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं ।
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ।।१११✽३।।
यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविघतपःफ लं महद्विपुलम् ।
ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ।।१११✽३।।
vyavahAraratnatrayanA ArAdhak evA tapodhane bahira.ng sAdhanabhUt koI paN AhArAdikane grahaN
karatA.n ChatA.n paN, svasvabhAvathI pratipakShabhUt moh na karavo, evu.n tAtparya Che. 111✽2.
have, pharI paN bhojananI lAlasAno tyAg karAve Che : —
गृहस्थको योग्य है । जिस गृहस्थने यतीको आहार दिया, उसने तपश्चरण दिया, क्योंकि
संयमका साधन शरीर है, और शरीरकी स्थिति अन्न जलसे है । आहारके ग्रहण करनेसे तपस्याकी
बढ़वारी होती है । इसलिये आहारका दान तपका दान है । यह तप – संयम शुद्धात्माकी
भावनारूप है, और ये अंतर बाह्य बारह प्रकारका तप शुद्धात्माकी अनुभूतिका साधक है । तप
संयमका साधन दिगम्बर का शरीर है । इसलिये आहारके देनेवालेने यतीके देहकी रक्षा की,
और आहारके देनेवालेने शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष दी । क्योंकि मोक्षका साधन मुनिव्रत है,
और मुनिव्रतका साधन शरीर है, तथा शरीरका साधन आहार है । इसप्रकार अनेक गुणोंको उत्पन्न
करनेवाला आहारादि चार प्रकारका दान उसको श्रावक भक्तिसे देता है, तो भी निश्चय व्यवहार
रत्नत्रयके आराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हुए भी राग नहीं करते हैं ।
राग-द्वेष-मोहादि परिणाम निजभावके शत्रु हैं, यह सारांश हुआ ।।१११✽२।।
आगे फि र भी भोजनकी लालसाको त्याग कराते हैं —
गाथा – १११✽३
अन्वयार्थ : — [भो साधो ] हे योगी, [यदि ] जो तू [द्वादशविधतपः फ लं ] बारह
प्रकार तपका फ ल [महद्विफ लं ] बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष [इच्छसि ] चाहता है, [ततः ] तो