Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-119 ]paramAtmaprakAsh: [ 415
bhAvArtha: — he jIv! nishchayathI sa.nsArathI viparIt evo je shuddha AtmA tenAthI
vilakShaN evA, dravya, kShetra, kAL, bhav, bhAv e pA.nch prakAranA bhedathI bhedavALA sa.nsAramA.n
bhaTakato, tu.n mahAn duHkhane pAme Che, mATe shuddha AtmAnI prAptinA baLathI AThey karmone nirmUL
karIne svAtmopalabdhirUp mokShane – ke je kevaLaj~nAnAdi mahAguNothI yukta hovAthI mahAn Che
tene – pAm. kahyu.n paN Che ke – ‘सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः’ (pUjyapAdasvAmI siddhabhakti 1)
artha: — svaAtmAnI upalabdhine mokSha kahe Che. 119.
have, joke tu.n jarAk jeTalA.n duHkhane sahan karavAne asamartha Cho topaN karmone shA mATe
प्राप्नोषि दुःखं महत् त्वं जीव संसारे भ्रमन् ।
अष्टापि कर्माणि निर्दल्य व्रज मोक्षं महान्तम् ।।११९।।
पावहि इत्यादि । पावहि दुक्खु महंतु प्राप्नोषि दुःखं महद्रूपं तुहुं त्वं जिय हे जीव ।
किं कुर्वन् । संसारि भमंतु निश्चयेन संसारविपरीतविशुद्धात्मविलक्षणं द्रव्यक्षेत्रकालभवभाव-
पञ्चभेदभिन्नं संसारं भ्रमन् । तस्मात्किं कुरु । अट्ठ वि कम्मइं णिद्दलिवि शुद्धात्मोप-
लम्भबलेनाष्टापि कर्माणि निर्मूल्य वच्चहि व्रज । किम् । मुक्खु स्वात्मोपलब्धिलक्षणं मोक्षम् ।
तथा चोक्त म् — ‘सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः’ । कथंभूतं मोक्षम् । महंतु केवलज्ञानादिमहागुण-
युक्त त्वान्महान्तमित्यभिप्रायः ।।११९।।
अथ यद्यप्यल्पमपि दुःखं सोढुमसमर्थस्तथापि कर्माणि किमिति करोषीति शिक्षां
प्रयच्छति —
गाथा – ११९
अन्वयार्थ : — [जीव ] हे जीव, [त्वं ] तू [संसारे ] संसार – वनमें [भ्रमन् ] भटकता
हुआ [महद् दुःखं ] महान् दुःख [प्राप्नोषि ] पावेगा, इसलिए [अष्टापि कर्माणि ] ज्ञानावरणादि
आठों ही कर्मोंको [निर्दल्य ] नाश कर, [महांतम् मोक्षं ] सबमें श्रेष्ठ मोक्षको [व्रज ] जा ।
भावार्थ : — निश्चयकर संसारसे रहित जो शुद्धात्मा उससे जुदा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भव, भावरूप पाँच तरहके परावर्तनस्वरूप संसार उसमें भटकता हुआ चारों गतियोंके दुःख
पावेगा, निगोद राशिमें अनंतकाल तक रुलेगा । इसलिए आठ कर्मोंका क्षय करके शुद्धात्माकी
प्राप्तिके बलसे रागादिकका नाश कर निर्वाणको जा । कैसा है वह निर्वाण, जो निजस्वरूपकी
प्राप्ति वही जिसका स्वरूप है, और जो सबमें श्रेष्ठ है । केवलज्ञानादि महान् गुणोंकर सहित है ।
जिसके समान दूसरा कोई नहीं ।।११९।।
आगे जो थोड़े दुःख भी सहनेको असमर्थ है, तो ऐसे काम क्यों करता है, कि जन्मोंसे