Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-121 ]paramAtmaprakAsh: [ 417
have, bAhya vyAsa.ngamA.n (bAhya dhA.ndhalamA.n, bahAranA vyApAramA.n, bAhya parigrahamA.n) Asakta
jagat kShaNamAtra paN AtmAno vichAr karatu.n nathI, em kahe Che : —
bhAvArtha: — mithyAtva, viShay, kaShAyanA nimittathI utpanna Artaraudra vyAsa.ngamA.n vyAsakta,
vishiShTa bhedaj~nAnathI rahit samasta jagat, shuddhAtmabhAvanAthI parA~N.hmukh mUDh prANIgaN-karmo karyA
ja kare Che paN ana.ntaj~nAnAdisvarUp mokShanu.n kAraN evA vItarAg param AhlAdanA rasAsvAdarUpe
अथ बहिर्व्यासंगासक्तं जगत् क्षणमप्यात्मानं न चिन्तयतीति प्रतिपादयति —
२५१) धंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मइँ करइ अयाणु ।
मोक्खहँ कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ।।१२१।।
धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि ।
मोक्षस्य कारणं एकं क्षणं नैव चिन्तयति आत्मानम् ।।१२१।।
धंधइ इत्यादि । धंधइ धान्धे मिथ्यात्वविषयकषायनिमित्तोत्पन्ने दुर्ध्यानार्तरौद्रव्यासंगे
पडियउ पतितं व्यासक्त म् । किम् । सयलु जगु समस्तं जगत्, शुद्धात्मभावनापराङ्मुखो
मूढप्राणिगणः कम्मइं करइ कर्माणि करोति । कथंभूतं जगत् । अयाणु विशिष्ट भेदज्ञानरहितं
मोक्खहं कारणु अनन्तज्ञानादिस्वरूपमोक्षकारणं एक्कु खणु एकक्षणमपि णवि चिंतइ नैव
ध्यायति । कम् । अप्पाणु वीतरागपरमाह्लादरसास्वादपरिणतं स्वशुद्धात्मानमिति भावार्थः ।।१२१।।
आगे बाहरके परिग्रहमें लीन हुए जगत्के प्राणी क्षणमात्र भी आत्माका चिंतवन नहीं
करते, ऐसा कहते हैं —
गाथा – १२१
अन्वयार्थ : — [धांधे पतितं ] जगत्के धंधेमें पड़ा हुआ [सकलं जगत् ] सब जगत्
[अज्ञानि ] अज्ञानी हुआ [कर्माणि ] ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंको [करोति ] करता है, परन्तु
[मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [एकं क्षणं ] एक क्षण भी
[नैव चिंतयति ] नहीं चिन्तवन करता ।
भावार्थ : — भेदविज्ञानसे रहित ये मूढ प्राणी शुद्धात्माकी भावनासे पराङ्मुख हैं,
इसलिए शुभाशुभ कर्मोंका ही बंध करता है, और अनंतज्ञानादिस्वरूप मोक्षका कारण जो
वीतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एकक्षण भी विचार नहीं करता । सदा ही आर्त रौद्र
ध्यान में लग रहा है, ऐसा सारांश है ।।१२१।।