Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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यस्य न वर्णो न गन्धो रसः यस्य न शब्दो न स्पर्शः ।
यस्य न जन्म मरणं नापि नाम निरञ्जनस्तस्य ।।१९।।
यस्य न क्रोधो न मोहो मदः यस्य न माया न मानः ।
यस्य न स्थानं न ध्यानं जीव तमेव निरञ्जनं जानीहि ।।२०।।
अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य अस्ति न हर्षो विषादः ।
अस्ति न एकोऽपि दोषो यस्य स एव निरञ्जनो भावः ।।२१।। त्रिकलम् ।
adhikAr-1 : dohA-19-21 ]paramAtmaprakAsh: [ 45
गाथा – १९-२१
अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिस भगवान्के [वर्णः ] सफे द, काला, लाल, पीला,
नीलास्वरूप पाँच प्रकार वर्ण [न ] नहीं है, [गंधः रसः ] सुगंध दुर्गन्धरूप दो प्रकारकी गंध
[न ] नहीं है, मधुर, आम्ल (खट्टा), तिक्त, कटु, कषाय (क्षार) रूप पाँच रस नहीं हैं
[यस्य ] जिसके [शब्दः न ] भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, अर्थात् सचित्त अचित्त मिश्ररूप
कोई शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं हैं, [स्पर्शःन ] शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु,
कठिनरूप आठ तरहका स्पर्श नहीं है, [यस्य ] और जिसके [जन्म न ] जन्म, जरा नहीं है,
[मरणं नापि ] तथा मरण भी नहीं है [तस्य ] उसी चिदानंद शुद्धस्वभाव परमात्माकी
[निरंजनं नाम ] निरंजन संज्ञा है, अर्थात् ऐसे परमात्माको ही निरंजनदेव कहते हैं । फि र वह
निरंजनदेव कैसा है — [यस्य ] जिस सिद्ध परमेष्ठीके [क्रोधः न ] गुस्सा नहीं है, [मोहः मदः
न ] मोह तथा कुल जाति आदि आठ तरहका अभिमान नहीं है, [यस्य माया न मानः न ]
जिसके माया व मान कषाय नहीं है, और [यस्य ] जिसके [स्थानं न ] ध्यानके स्थान
नाभि, हृदय, मस्तक, आदि नहीं है [ध्यानं न ] चित्तके रोकनेरूप ध्यान नहीं है, अर्थात् जब
चित्त ही नहीं है तो रोकना किसका हो, [स एव ] ऐसे निजशुद्धात्माको हे जीव, तू जान
।
सारांश यह हुआ, कि अपनी प्रतिसिद्धता (बड़ाई) महिमा, अपूर्व वस्तुका मिलना, और देखे
सुने भोग इनकी इच्छारूप सब विभाव परिणामोंको छोड़कर अपने शुद्धात्माकी
अनुभूतिस्वरूप निर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर उस शुद्धात्माका अनुभव कर । पुनः वह निरंजन
कैसा है — [यस्य ] जिसके [पुण्यं न पापं न अस्ति ] द्रव्यभावरूप पुण्य नहीं, तथा पाप
नहीं है, [हर्षः विषादः न ] रागद्वेषरूप खुशी व रंज नहीं हैं, [यस्य ] और जिसके [एकः
अपि दोषः ] क्षुधा (भूख) आदि दोषोंमेंसे एक भी दोष नहीं है [स एव ] वही शुद्धात्मा
[निरंजनः ] निरंजन है, ऐसा तू [भावय ] जान ।