Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-22 (Adhikar 1).

< Previous Page   Next Page >


Page 47 of 565
PDF/HTML Page 61 of 579

background image
Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
ma.nDal, mudrAdik kahyA.n Che teno nirdoSh paramAtmAnI ArAdhanArUp dhyAnamA.n niShedh kare
Che :
bhAvArtha :atIndriy sukhanA AsvAdathI viparIt jihvendriyanA viShayane, nirmoh shuddha
AtmasvabhAvathI pratikUL mohane, vItarAg sahajAna.ndarUp paramasamarasIbhAvasvarUp sukharasanA
anubhavathI pratipakSha nav prakAranA abrahmacharyavratane (kushIlane) ane vItarAg nirvikalpa samAdhinA
यत्तन्निर्दोषपरमात्माराधनाध्याने निषेधयन्ति
२२) जाणु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ।।२२।।
यस्य न धारणा ध्येयं नापि यस्य न यन्त्रं न मन्त्रः
यस्य न मण्डलं मुद्रा नापि तं मन्यस्व देवमनन्तम् ।।२२।।
यस्य परमात्मनो नास्ति न विद्यते किं किम् कुम्भकरेचकपूरकसंज्ञावायुधारणादिकं
प्रतिमादिकं ध्येयमिति पुनरपि किं किं तस्य अक्षररचनाविन्यासरूपस्तम्भनमोहनादिविषयं
यन्त्रस्वरूपं विविधाक्षरोच्चारणरूपं मन्त्रस्वरूपं च अपमण्डलवायुमण्डलपृथ्वीमण्डलादिकं गारुड-
मुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्यार्थिकनयेनानन्तमविनश्वरमनन्त-
adhikAr-1 : dohA-22 ]paramAtmaprakAsh: [ 47
शास्त्रमें कहे गए हैं, उन सबका निर्दोष परमात्माकी आराधनारूप ध्यानमें निषेध किया है
गाथा२२
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस परमात्माके [धारणा न ] कुंभक, पूरक, रेचक
नामवाली वायुधारणादिक नहीं है, [ध्येयं नापि ] प्रतिमा आदि ध्यान करने योग्य पदार्थ भी
नहीं है, [यस्य ] जिसके [यन्त्रः न ] अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं
है, [मन्त्रः न ] अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप मंत्र नहीं है, [यस्य ] और जिसके [मण्डलं
न ] जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं हैं, [मुद्रा न ]
गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्रा नहीं हैं, [तं ] उसे [अनन्तम् ] द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी तथा
अनंत ज्ञानादिगुणरूप [देवम् मन्यस्व ]
परमात्मदेव जानो
भावार्थ :अतीन्द्रिय आत्मीक-सुखके आस्वादसे विपरीत जिह्वाइंद्रीके विषय
(रस) को जीतके निर्मोह शुद्ध स्वभावसे विपरीत मोहभावको छोड़कर और वीतराग सहज
आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको