Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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देहदेवालये यः वसति देवः अनाद्यनन्तः ।
केवलज्ञानस्फु रत्तनुः स परमात्मा निर्भ्रान्तः ।।३३।।
व्यवहारेण देहदेवकुले वसन्नपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वाद्देहवन्मूर्तः सर्वाशुचिमयो न भवति ।
यद्यपि देहो नाराध्यस्तथापि स्वयं परमात्माराध्यो देवः पूज्यः, यद्यपि देह आद्यन्तस्तथापि स्वयं
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनानाद्यनन्तः, यद्यपि देहो जडस्तथापि स्वयं लोकालोकप्रकाशकत्वात्केवलज्ञान-
स्फु रिततनुः, केवलज्ञानप्रकाशरूपशरीर इत्यर्थंः । स पूर्वोक्तलक्षणयुक्तः परमात्मा भवतीति ।
कथंभूतः । निर्भ्रान्तः निस्सन्देह इति । अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि सर्वाशुच्यादिदेहधर्मं न स्पृशति
स एव शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।३३।।
गाथा – ३३
अन्वयार्थ : — [यः ] जो व्यवहारनयकर [देहदेवालये ] देहरूपी देवालयमें
[वसति ] बसता है, निश्चयनयकर देहसे भिन्न है, देहकी तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं
है, महा पवित्र है, [देवः ] आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है,
[अनाद्यनन्तः ] जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर अनादि अनंत है, तथा यह देह आदि
अंतकर सहित है, [केवलज्ञानस्फु रत्तनुः ] जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको
प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़
है, [सः परमात्मा ] वही परमात्मा [निर्भ्रान्तः ] निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं
समझना ।।३३।।
भावार्थ : — जो देहमें रहता है, तो भी देहसे जुदा है, सर्वाशुचिमयी देहको वह देव
छूता नहीं है, वहीं आत्मदेव उपादेय है ।।३३।।
bhAvArtha : — je vyavahAranayathI dehadevAlayamA.n rahevA ChatA.n paN nishchayanayathI dehathI
bhinna hovAthI dehanI jem mUrta, sarvAshuchimay nathI, jo ke deh ArAdhya nathI topaN pote
paramAtmA-dev-ArAdhya-pUjyaChe, jo ke deh Adi-a.ntavALo Che topaN pote shuddha dravyArthikanayathI
anAdi-ana.nt Che, jo ke deh jaD Che to paN pote lokAlokano prakAshak hovAthI
kevalaj~nAnaprakAsharUp sharIravALo Che te niHsa.ndeh paramAtmA Che.
ahI.n je dehamA.n rahevA ChatA.n paN sarvAshuchimay Adi dehadharmane sparshato nathI te ja shuddha
AtmA upAdey Che evo bhAvArtha Che. 33.
adhikAr-1 : dohA-33 ]paramAtmaprakAsh: [ 63