Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
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४१) जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि ।
जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ।।४१।।
यस्य अभ्यन्तरे जगत् वसति जगदभ्यन्तरे य एव ।
जगति एव वसन्नपि जगत् एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।४१।।
यस्य केवलज्ञानस्याभ्यन्तरे जगत् त्रिभुवनं ज्ञेयभूतं वसति जगतोऽभ्यन्तरे योऽसौ
ज्ञायको भगवानपि वसति, जगति वसन्नेव रूपविषये चक्षुरिव निश्चयनयेन तन्मयो न भवति
मन्यस्व जानीहि । हे प्रभाकरभट्ट, तमित्थंभूतं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा
भावयेत्यर्थः । अत्र योऽसौ केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपस्य कार्यसमयसारस्य वीतरागस्वसंवेदनकाले
मुक्ति कारणं भवति स एवोपादेय इति भावार्थः ।।४१।।
अथ देहे वसन्तमपि हरिहरादयः परमसमाधेरभावादेव यं न जानन्ति स परमात्मा
मध्यमें वह ठहर रहा है, तो भी वह जगत्रूप नहीं है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ४१
अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिस आत्मारामके [अभ्यन्तरे ] केवलज्ञानमें [जगत् ] संसार
[वसति ] बस रहा है, अर्थात् प्रतिबिम्बित हो रहा है, प्रत्यक्ष भास रहा है, [जगदभ्यन्तरे ]
और जगत्में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है । वह ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय है,
[जगति एव वसन्नपि ] संसारमें निवास करता हुआ भी [जगदेव नापि ] निश्चयनयकर किसी
जगत्की वस्तुसे तन्मय (उस स्वरूप) नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थको नेत्र देखते हैं,
तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, [तमेव ] उसीको
[परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] हे प्रभाकरभट्ट, तू जान ।
भावार्थ : — जो शुद्ध, बुद्ध सर्वव्यापक सबसे अलिप्त, शुद्धात्मा है, उसे वीतराग
निर्विकल्प समाधिमें स्थिर होकर ध्यान कर । जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार है,
उसका कारण वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप निजभाव ही उपादेय हैं ।।४१।।
आगे वह शुद्धात्मा यद्यपि देहमें रहता है, तो भी परमसमाधिके अभावसे हरिहरादिक
bhAvArtha : — ahI.n je (shuddha AtmA) kevaLaj~nAnAdinI vyaktirUp, kAryasamayasArarUp,
muktinu.n vItarAgasvasa.nvedan kALamA.n kAraN thAy Che, te ja upAdey Che evo bhAvArtha Che. 41.
have, dehamA.n rahelo hovA ChatA.n paN, param samAdhinA abhAvane kAraNe harihar vagere
adhikAr-1 : dohA-41 ]paramAtmaprakAsh: [ 73