Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ശ്രീ ദിഗംബര ജൈന സ്വാധ്യായമംദിര ട്രസ്ട, സോനഗഢ - ൩൬൪൨൫൦
൧൧൨ ]യോഗീന്ദുദേവവിരചിത: [ അധികാര-൧ : ദോഹാ-൬൩
कर्मोंका क्षय करते हैं, तब आराधने योग्य हैं, यह तात्पर्य हुआ ।।६२।।
इसप्रकार कर्मस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे चार दोहे कहे । आगे पाँच इन्द्रिय, मन,
समस्त विभाव और चार गतिके दुःख ये सब शुद्ध निश्चयनयकर कर्मसे उपजे हैं, जीवके नहीं
हैं, यह अभिप्राय मनमें रखकर दोहा-सूत्र कहते हैं —
गाथा – ६३
अन्वयार्थ : — [पंचापि ] पाँचों ही [इन्द्रियाणि ] इन्द्रियाँ [अन्यत् ] भिन्न हैं,
[मनः ] मन [अपि ] और [सकलविभावः ] रागादि सब विभाव परिणाम [अन्यत् ] अन्य हैं,
[चतुर्गतितापाः अपि ] तथा चारों गतियोंके दुःख भी [अन्यत् ] अन्य हैं, [जीव ] हे जीव,
ये सब [जीवानां ] जीवोंके [कर्मणा ] कर्मकर [जनिताः ] उपजे हैं, जीवसे भिन्न हैं, ऐसा
जान ।
भावार्थ : — इन्द्रिय रहित शुद्धात्मासे विपरीत जो स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, शुभ
സമാധികാളേ സാക്ഷാത് ഉപാദേയ ഛേ, ഏവോ താത്പര്യാര്ഥ ഛേ. ൬൨.
ഏ പ്രമാണേ കര്മസ്വരൂപനാ കഥനനീ മുഖ്യതാഥീ ചാര സൂത്രോ സമാപ്ത ഥയാം.
ഹവേ, പാംച ഇന്ദ്രിയ, മന, സമസ്ത വിഭാവ അനേ ചാര ഗതിനാ സംതാപോ ശുദ്ധ നിശ്ചയനയഥീ
കര്മജനിത ഛേ ഏവോ അഭിപ്രായ മനമാം രാഖീനേ സൂത്ര കഹേ ഛേ : —
ഭാവാര്ഥ : — അതീന്ദ്രിയ ശുദ്ധ ആത്മാഥീ വിപരീത ജേ പാംച ഇന്ദ്രിയോ, ശുഭാശുഭ സംകല്പ
कथनमुख्यत्वेन सूत्रचतुष्टयं गतम् ।।
अथापीन्द्रियचित्तसमस्तविभावचतुर्गतिसंतापाः शुद्धनिश्चयनयेन कर्मजनिता इत्यभिप्रायं
मनसि धृत्वा सूत्रं कथयन्ति —
६३) पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल – विभाव ।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ – ताव ।।६३।।
पञ्चापि इन्द्रियाणि अन्यत् मनः अन्यदपि सकलविभावः ।
जीवानां कर्मणा जनिताः जीव अन्यदपि चतुर्गतितापाः ।।६३।।
पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयलविभाव पञ्चेन्द्रियाणि अन्यन्मनः अन्यदपि
पुनरपि समस्तविभावः । जीवहं कम्मइं जणिय जिय अण्णु वि चउगइताव एते जीवानां कर्मणा