Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
अथाष्टकर्माष्टादशदोषरहितत्वापेक्षया शून्यो भवतीति न च केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
चेति दर्शयति —
५५) अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण ।
सुद्धहँ एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण ।।५५।।
अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन ।
शुद्धानां एकोऽपि अस्ति नैव शून्योऽपि उच्यते तेन ।।५५।।
अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन कारणेन शुद्धात्मनां तन्मध्ये
चैकोऽप्यस्ति नैव शून्योऽपि भण्यते तेन कारणेनैवेति । तद्यथा । शुद्धनिश्चयनयेन
ହଵେ ଆତ୍ମା ଆଠ କର୍ମ ଅନେ ଅଢାର ଦୋଷଥୀ ରହିତ ହୋଵାନୀ ଅପେକ୍ଷାଏ ‘ଶୂନ୍ଯ’ ଛେ, ପଣ
କେଵଳଜ୍ଞାନାଦି ଗୁଣୋନୀ ଅପେକ୍ଷାଏ ଶୂନ୍ଯ ନଥୀ ଏମ ଦର୍ଶାଵେ ଛେ : —
ଭାଵାର୍ଥ : — ଶୁଦ୍ଧନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ କ୍ଷୁଧାଦି ଦୋଷୋନାଂ କାରଣଭୂତ ଜ୍ଞାନାଵରଣାଦି ଆଠ
ଦ୍ରଵ୍ଯକର୍ମୋ, କାର୍ଯଭୂତ କ୍ଷୁଧାତୃଷାଦି ଅଢାର ଦୋଷୋ ନଥୀ, ‘ଅପି’ ଶବ୍ଦଥୀ ସତ୍ତା, ଚୈତନ୍ଯ, ବୋଧ ଆଦି
ଶୁଦ୍ଧପ୍ରାଣରୂପଥୀ ଶୁଦ୍ଧ ଜୀଵତ୍ଵ ହୋଵା ଛତାଂ ପଣ ଦଶ ପ୍ରାଣରୂପ ଅଶୁଦ୍ଧ ଜୀଵତ୍ଵ ନଥୀ, ତେ କାରଣେ
ସଂସାରୀ ଜୀଵୋ ନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ ଶକ୍ତିରୂପେ ରାଗାଦି ଵିଭାଵଥୀ ଶୂନ୍ଯ ପଣ ଛେ ଅନେ ମୁକ୍ତ ଆତ୍ମାଓ
ନେ ତୋ ରାଗାଦି ଵିଭାଵଥୀ ପ୍ରଗଟପଣେ ଶୂନ୍ଯପଣୁଂ ଛେ, ପଣ ବୌଦ୍ଧାଦିନୀ ମାନ୍ଯତାନୀ ଜେମ ଆତ୍ମାନେ
आगे आठ कर्म और अठारह दोषोंसे रहित हुआ विभाव-भावोंकर रहित होनेसे शून्य
कहा जाता है, लेकिन केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा शून्य नहीं है, सदा पूर्ण ही है, ऐसा
दिखलाते हैं —
गाथा – ५५
अन्वयार्थ : — [येन ] जिस कारण [अष्टौ अपि ] आठों ही [बहुविधानि कर्माणि ]
अनेक भेदोंवाले कर्म [नवनव दोषा अपि ] अठारह ही दोष इनमेंसे [एकः अपि ] एक भी
[शुद्धानां ] शुद्धात्माओंके [नैव अस्ति ] नहीं है, [तेन ] इसलिये [शून्योऽपि ] शून्य भी
[भण्यते ] कहा जाता है ।
भावार्थ : — इस आत्माके शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्म नहीं है,
क्षुधादि दोषोंके कारणभूत कर्मोंके नाश हो जानेसे क्षुधा-तृषादि अठारह दोष कार्यरूप नहीं
हैं, और अपि शब्दसे सत्ता चैतन्य ज्ञान आनंदादि शुद्ध प्राण होनेपर भी इन्द्रियादि दश
୯୪ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୫୫