Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
କହ୍ଯୁଂ ଛେ କେ ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ ଶୁଦ୍ଧ ଦ୍ରଵ୍ଯାର୍ଥିକନଯଥୀ (ଶୁଦ୍ଧନଯଥୀ) ସର୍ଵ ସଂସାରୀ ଜୀଵୋ
ଶୁଦ୍ଧ ବୁଦ୍ଧ ଏକସ୍ଵଭାଵଵାଳା ଛେ.
ଶା କାରଣଥୀ (ତେଓ କାର୍ଯସମଯସାରରୂପ ସିଦ୍ଧ ପରମାତ୍ମା ଥଯା ଛେ)? କରଣରୂପ ଧ୍ଯାନାଗ୍ନି
ଵଡେ (ତେଓ କାର୍ଯସମଯସାରରୂପ ସିଦ୍ଧ ପରମାତ୍ମା ଥଯା ଛେ ). ‘ଧ୍ଯାନ’ ଶବ୍ଦଥୀ ଆଗମନୀ ଅପେକ୍ଷାଏ
ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ଶୁକ୍ଲଧ୍ଯାନ ଅନେ ଅଧ୍ଯାତ୍ମନୀ ଅପେକ୍ଷାଏ ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ରୂପାତୀତଧ୍ଯାନ
ସମଜଵୁଂ. କହ୍ଯୁଂ ଛେ କେ (ବୃହତ ଦ୍ରଵ୍ଯସଂଗ୍ରହ ଗାଥା ୪୮ନୀ ଟୀକା) ❃
‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिंण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ (ଅର୍ଥ : — ମଂତ୍ରଵାକ୍ଯୋମାଂ ସ୍ଥିତ ତେ ‘ପଦସ୍ଥ’
ଧ୍ଯାନ ଛେ, ନିଜ ଆତ୍ମାନୁଂ ଚିଂତନ ତେ ‘ପିଂଡସ୍ଥ’ ଧ୍ଯାନ ଛେ; ସର୍ଵଚିଦ୍ରୂପନୁଂ ଚିଂତନ ତେ ‘ରୂପସ୍ଥ’ ଧ୍ଯାନ
ଛେ ଅନେ ନିରଂଜନନୁଂ ଧ୍ଯାନ ତେ ରୂପାତୀତ ଧ୍ଯାନ ଛେ.) ଅନେ ତେ ଧ୍ଯାନ ଵସ୍ତୁଵୃତ୍ତିଥୀ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନାଂ
ସମ୍ଯକ୍ଶ୍ରଦ୍ଧାନ, ସମ୍ଯଗ୍ଜ୍ଞାନ, ସମ୍ଯକ୍ଅନୁଷ୍ଠାନରୂପ ଅଭେଦ ରତ୍ନତ୍ରଯାତ୍ମକ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ସମାଧିଥୀ ସମୁତ୍ପନ୍ନ
शक्त्यप्रेक्षया पूर्वमेव शुद्धबुद्धैकस्वभावस्तिष्ठति धातुपाषाणे सुवर्णशक्ति वत् । तथा चोक्तं
द्रव्यसंग्रहे – शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावाः । केन
जाताः । ध्यानाग्निना करणभूतेन ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्पशुक्लध्यानम्,
अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्परूपातीतध्यानम् । तथा चोक्त म् – ‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्या
शुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसी-
୧୦ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୧
कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंकके विनाशसे पाई । यह पर्यायार्थिकनयकी मुख्यतासे कथन
है और द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता
है । जैसे धातु पाषाणके मेलमें भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्णमें
सदा ही रहती है, जब परवस्तुका संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है । सारांश
यह है कि शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्धपर्याय पाने से हुआ । शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं । ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें कहा है, ‘‘सव्वे सुद्धाहु
सुद्धणया’ अर्थात् शुद्ध नयकर सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायर्थिकनयसे व्यक्तिकर
शुद्ध हुए । किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्निकर कर्मरूपी कलंकोंको भस्म
किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग
निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्मकी अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है । तथा
दूसरी जगह भी कहा है — ‘‘पदस्थं’’ इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदिका
जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका
❃ବୃହତ ଦ୍ରଵ୍ଯସଂଗ୍ରହ ଗାଥା ୪୮ନୀ ଟୀକା