Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Oriya transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ଶୁଦ୍ଧାତ୍ମାନୀ ଭାଵନାଥୀ ଉତ୍ପନ୍ନ ଵୀତରାଗ ପରମାନଂଦମଯ ସୁଖ ସମଜଵୁଂ , ‘ନିରୁପମ’ ଶବ୍ଦଥୀ ସମସ୍ତ
ଉପମା ରହିତ ସମଜଵୁଂ ଅନେ ‘ଜ୍ଞାନ’ ଶବ୍ଦଥୀ କେଵଳଜ୍ଞାନ ସମଜଵୁଂ.
ଶୁଂ କରତା ଥକା ଆଵା ଥଶେ? ଵିଶୁଦ୍ଧଜ୍ଞାନଦର୍ଶନସ୍ଵଭାଵଵାଳା ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମତତ୍ତ୍ଵନାଂ ସମ୍ଯକ୍
ଶ୍ରଦ୍ଧାନ, ସମ୍ଯଗ୍ଜ୍ଞାନ ଅନେ ସମ୍ଯକ୍-ଆଚରଣରୂପ ଅମୂଲ୍ଯ ରତ୍ନତ୍ରଯନା ଭାରଥୀ ପୂର୍ଣ, ମିଥ୍ଯାତ୍ଵ, ଵିଷଯ
ଅନେ କଷାଯାଦିରୂପ ସମସ୍ତ ଵିଭାଵଜଳନା ପ୍ରଵେଶ ରହିତ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନୀ ଭାଵନାଥୀ ଉତ୍ପନ୍ନ ସହଜାନଂଦ
ଜେନୁଂ ଏକ ରୂପ ଛେ ଏଵା ସୁଖାମୃତଥୀ ଵିପରୀତ ନରକାଦିଦୁଃଖରୂପ କ୍ଷାରଜଳଥୀ ପୂର୍ଣ ସଂସାରସମୁଦ୍ରନେ
ତରଵାନା ଉପାଯଭୂତ ସମାଧିରୂପୀ ନାଵନେ ଭଜତା, ସେଵତା ଥକା ଅର୍ଥାତ୍ ତେନା ଆଧାରେ ଚାଲତା ଅନଂତ
ସିଦ୍ଧ ଥଶେ.
ଅହୀଂ ଶିଵମଯ, ନିରୁପମ, ଜ୍ଞାନମଯ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମସ୍ଵରୂପ ଉପାଦେଯ ଛେ ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. ୨.
कर्मतापन्नान् अहं वन्दे कथंभूतान् केवलज्ञानादिमोक्षलक्ष्मीसहितान्
सम्यक्त्वाद्यष्टगुणविभूतिसहितान् अनन्तान् किं करिष्यन्ति ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण
दुर्लभबोधिं लब्ध्वा भविष्यन्त्यग्रे श्रेणिकादयः किंविशिष्टा भविष्यन्ति
शिवमयनिरुपमज्ञानमयाः अत्र शिवशब्देन स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखं ग्राह्यं,
निरुपमशब्देन समस्तोपमानरहितं ग्राह्यं, ज्ञानशब्देन केवलज्ञानं ग्राह्यम् किं कुर्वाणाः सन्त
इत्थंभूताः भविष्यन्ति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपामूल्य-
रत्नत्रयभारपूर्णंमिथ्यात्वविषयकषायादिरूपसमस्तविभावजलप्रवेशरहितं शुद्धात्मभावनोत्थसहजा-
नन्दैकरूपसुखामृतविपरीतनरकादिदुःखरूपेण क्षारजलेन पूर्णस्य संसारसमुद्रस्य तरणोपायभूतं
समाधिपोतं भजन्तः सेवमानास्तदाधारेण गच्छन्त इत्यर्थः
अत्र शिवमयनिरुपम-
ज्ञानमयशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।।।
ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୨ ]ପରମାତ୍ମପ୍ରକାଶ: [ ୧୫
जीव सिद्ध होंगे पुनः कैसे होंगे ? शिव अर्थात् निज शुद्धात्माकी भावना, उसकर उपजा जो
वीतराग परमानंद सुख, उस स्वरूप होंगे, समस्त उपमा रहित अनुपम होंगे, और केवलज्ञानमई
होंगे
क्या करते हुए ऐसे होंगे ? निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव जो शुद्धात्मा है, उसके यथार्थ
श्रद्धान - ज्ञान-आचरणरूप अमोलिक रत्नत्रयकर पूर्ण और मिथ्यात्व विषय कषायादिरूप समस्त
विभावरूप जलके प्रवेशसे रहित शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो सहजानंदरूप सुखामृत,
उससे विपरीत जो नारकादि दुःख वे ही हुए क्षारजल, उनकर पूर्ण इस संसाररूपी समुद्रके
तरनेका उपाय जो परमसमाधिरूप जहाज उसको सेवते हुए, उसके आधारसे चलते हुए, अनंत
सिद्ध होंगे
इस व्याख्यानका यह भावार्थ हुआ, कि जो शिवमय अनुपम ज्ञानमय शुद्धात्मस्वरूप
है वही उपादेय है ।।।।