Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ସମ୍ଯକ୍ଅନୁଷ୍ଠାନରୂପ ଅଭେଦ ରତ୍ନତ୍ରଯାତ୍ମକ ଜେ ମୋକ୍ଷମାର୍ଗ ଛେ ଏଵା ମୋକ୍ଷ ଅନେ ମୋକ୍ଷମାର୍ଗନେ ଜେମଣେ
ପ୍ରକାଶ୍ଯା ଛେ ତେମନେ ହୁଂ ନମସ୍କାର କରୁଂ ଛୁଂ. ଅହୀଂ ଅର୍ହତଗୁଣସ୍ଵରୂପ ଜେ ସ୍ଵଶୁଦ୍ଧାତ୍ମସ୍ଵରୂପ ଛେ ତେ ଜ
ଉପାଦେଯ ଛେ ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. ୬.
ତ୍ଯାର ପଛୀ ଭେଦାଭେଦରତ୍ନତ୍ରଯନା ଆରାଧକ ଆଚାର୍ଯ ଉପାଧ୍ଯାଯ ଅନେ ସାଧୁନେ ହୁଂ ନମସ୍କାର କରୁଂ
ଛୁଂ : —
शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मको मोक्षमार्गश्च, तानहं वन्दे ।
अत्रार्हद्गुणस्वरूपस्वशुद्धात्मस्वरूपमेवोपादेयमिति भावार्थः ।।६।।
अथानन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानाचार्योपाध्यायसाधून्नमस्करोमि —
७) जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि ।
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि ।।७।।
ये परमात्मानं पश्यन्ति मुनयः परमसमाधिं धृत्वा ।
परमानन्दस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ।।७।।
୨୨ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୭
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्ष और जो शुद्धात्माका यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप
अभेदरत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गको भी प्रगट किया, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ । इस व्याख्यानमें अरहंतदेवके केवलज्ञानादि गुणस्वरूप जो शुद्धात्मस्वरूप
है, वही आराधने योग्य है, यह भावार्थ जानना ।।६।।
आगे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ —
गाथा – ७
अन्वयार्थ : — [ये मुनय: ] जो मुनि [परमसमाधिं ] परमसमाधिको [धृत्वा ] धारण
करके सम्यग्ज्ञानकर [परमात्मानं ] परमात्माको [पश्यन्ति ] देखते हैं । किस लिए
[परमानंदस्य कारणेन ] रागादि विकल्प रहित परमसमाधिसे उत्पन्न हुए परमसुखके रसका
अनुभव करनेके लिए [तान् अपि ] उन [त्रीन् अपि ] तीनों आचार्य, उपाध्याय, साधुओंको
भी [नत्वा ] मैं नमस्कार करके परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ ।