Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
‘‘इत्यातिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् ।
संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’
ଅର୍ଥ : — ଅତିଦୁର୍ଲଭ ବୋଧି ପାମୀନେ ଜୋ ଜୀଵ ପ୍ରମାଦୀ ଥାଯ ତୋ ତେ ଵରାକ (ବିଚାରୋ, ରଂକ)
ପୁରୁଷ ସଂସାରରୂପୀ ଭଯଂକର ଅରଣ୍ଯମାଂ ଘଣା କାଳ ସୁଧୀ ଭ୍ରମଣ କରେ ଛେ.
ପଣ ବୋଧିସମାଧିନା ଅଭାଵେ ପୂର୍ଵୋକ୍ତ ସଂସାରମାଂ ଭ୍ରମଣ କରତା ମେଂ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମସମାଧିଥୀ ଉତ୍ପନ୍ନ
ଵୀତରାଗ ପରମାନଂଦରୂପ ସୁଖାମୃତ ଜରାଯ ପଣ ପ୍ରାପ୍ତ ନ କର୍ଯୁଂ, ପଣ ତେନାଥୀ ଵିପରୀତ ଆକୁଳତାନା ଉତ୍ପାଦକ
ଵିଵିଧ ଶାରୀରିକ ଅନେ ମାନସିକ ଚାର ଗତିନା ଭ୍ରମଣମାଂ ଥତାଂ ଦୁଃଖୋ ଜ ପ୍ରାପ୍ତ କର୍ଯା.
ଅତ୍ରେ ଜେ ଵୀତରାଗ ପରମାନଂଦରୂପ ସୁଖନୀ ପ୍ରାପ୍ତି ନ ଥତାଂ, ଆ ଜୀଵ ଅନାଦିକାଳଥୀ ଭଟକ୍ଯୋ
ତେ ଜ ସୁଖ ଉପାଦେଯ ଛେ ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. ୯.
ହଵେ ଜେ ପରମାତ୍ମ ସ୍ଵଭାଵନୀ ପ୍ରାପ୍ତି ନ ଥତାଂ, ଜୀଵ ଅନାଦିକାଳଥୀ ଭଟକ୍ଯୋ ତେ
ପରମାତ୍ମସ୍ଵଭାଵନୁଂ ଵ୍ଯାଖ୍ଯାନ ଶ୍ରୀପ୍ରଭାକରଭଟ୍ଟ ପୂଛେ ଛେ : —
समाधिरिति बोधिसमाधिलक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । तथा चोक्त म् — ‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां
बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’ परं किंतु
बोधिसमाध्यभावे पूर्वोक्त संसारे भ्रमतापि मया शुद्धात्मसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखामृतं
किमपि न प्राप्तं किंतु तद्विपरीतमाकुलत्वोत्पादकं विविधशारीरमानसरूपं चतुर्गतिभ्रमणसंभवं
दुःखमेव प्राप्तमिति । अत्र यस्य वीतरागपरमानन्दसुखस्यालाभे भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयमिति
भावार्थः ।।९।।
अथ यस्यैव परमात्मस्वभावस्यालाभेऽनादिकाले भ्रमितो जीवस्तमेव पृच्छति —
१०) चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ।।१०।।
୩୦ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୧୦
‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां’’ इत्यादि । इसका अभिप्राय ऐसा है, कि यह महान दुर्लभ जो
जैनशास्त्रका ज्ञान है, उसको पाके जो जीव प्रमादी हो जाता है, वह रंक पुरुष बहुत
कालतक संसाररूपी भयानक वनमें भटकता है । सारांश यह हुआ, कि वीतराग परमानंद
सुखके न मिलनेसे यह जीव संसाररूपी वनमें भटक रहा है, इसलिये वीतराग परमानंद
सुख ही आदर करने योग्य है ।।९।।
आगे जिस परमात्म-स्वभावके अलाभमें यह जीव अनादि कालसे भटक रहा था, उसी
परमात्मस्वभावका व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है —