Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Oriya transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
गृहीत्वाप्यत्रैव भवे विशिष्टसमाधिबलेन पुण्यबन्धं कृत्वा पश्चात्पूर्वकृतचारित्रमोहोदयेन विषयासक्त ो
भूत्वा रुद्रो भवति
कथं ते परमात्मस्वरूपं न जानन्ति इति पूर्वपक्षः तत्र परिहारं ददाति
युक्त मुक्तं भवता, यद्यपि रत्नत्रयाराधनां कृतवन्तस्तथापि याद्रशेन
वीतरागनिर्विकल्परत्नत्रयस्वरूपेण तद्भवे मोक्षो भवति ताद्रशं न जानन्तीति अत्र यमेव
शुद्धात्मानं साक्षादुपादेयभूतं तद्भवमोक्षसाधकाराधनासमर्थं च ते हरिहरादयो न जानन्तीति य
एवोपादेयो भवतीति भावार्थः
।।४२।।
बलसे पुण्यबंध करता है, उसके बाद पूर्वकृत चारित्रमोहके उदयसे विषयोंमें लीन हुआ रुद्र
(हर) कहलाता है
इसलिये वे हरिहरादिक परमात्माका स्वरूप कैसे नहीं जानते ? इसका
समाधान यह है, कि तुम्हारा कहना ठीक है यद्यपि इन हरिहरादिक महान पुरुषोंने रत्नत्रयकी
आराधना की, तो भी जिस तरहके वीतराग-निर्विकल्प-रत्नत्रयस्वरूपसे तद्भव मोक्ष होता है,
वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुआ, सरागरत्नत्रय हुआ है, इसीका नाम व्यवहाररत्नत्रय है
सो यह तो हुआ, लेकिन शुद्धोपयोगरूप वीतरागरत्नत्रय नहीं हुआ, इसलिये वीतरागरत्नत्रयके
धारक उसी भवसे मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते
इसीलिये परमशुद्धोपयोगियोंकी अपेक्षा इनको नहीं जाननेवाले कहा गया है, क्योंकि जैसे
स्वरूपके जाननेसे साक्षात् मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते
यहाँपर सारांश यह
है, कि जिस साक्षात् उपादेय शुद्धात्माको तद्भव मोक्षके साधक महामुनि ही आराध सकते
हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चिंतवन करने योग्य है
।।४२।।
ପୂର୍ଵପକ୍ଷ :ପୂର୍ଵଭଵମାଂ କୋଈ ଜୀଵ ଭେଦାଭେଦରତ୍ନତ୍ରଯନୀ ଆରାଧନା କରୀନେ, ଅନେ ଵିଶିଷ୍ଟ
ପୁଣ୍ଯବଂଧ କରୀନେ ପଛୀ ଅଜ୍ଞାନଭାଵଥୀ ନିଦାନବଂଧ କରେ ଛେ, ତ୍ଯାର ପଛୀ ତେ ସ୍ଵର୍ଗମାଂ ଜଈନେ ଫରୀ ମନୁଷ୍ଯ
ଥଈନେ ତ୍ରଣ ଖଂଡନୋ ଅଧିପତି ଏଵୋ ଵାସୁଦେଵ ଥାଯ ଛେ; ବୀଜୋ କୋଈ ଜୀଵ ଜିନଦୀକ୍ଷା ଗ୍ରହୀନେ ପଣ
ତେ ଜ ଭଵମାଂ ଵିଶିଷ୍ଟ ସମାଧିନା ବଳଥୀ ପୁଣ୍ଯବଂଧ କରୀନେ, ପଛୀ ପୂର୍ଵକୃତ ଚାରିତ୍ରମୋହନା ଉଦଯଥୀ
ଵିଷଯାସକ୍ତ ଥଈନେ ରୁଦ୍ର ଥାଯ ଛେ; ତୋ ପଛୀ ତେଓ ପରମାତ୍ମସ୍ଵରୂପନେ ନଥୀ ଜାଣତା
ଏମ କେମ କହୋ
ଛୋ?
ତେନୁଂ ସମାଧାନ :ତମାରୁଂ କହେଵୁଂ ଯୋଗ୍ଯ ଛେ. ଜୋ କେ ତେ ହରି, ହର ଜେଵା ପ୍ରସିଦ୍ଧ ପୁରୁଷୋଏ
ପୂର୍ଵେ ରତ୍ନତ୍ରଯନୀ ଆରାଧନା କରେଲୀ ଛେ ତୋପଣ, ଜେଵା ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ରତ୍ନତ୍ରଯସ୍ଵରୂପଥୀ ତେ ଜ ଭଵେ
ମୋକ୍ଷ ଥାଯ ତେଵା ପ୍ରକାରେ ତେଓ ପରମାତ୍ମସ୍ଵରୂପନେ ଜାଣତା ନଥୀ.
ଅହୀଂ ସାକ୍ଷାତ୍ ଉପାଦେଯଭୂତ ଅନେ ତେ ଜ ଭଵେ ମୋକ୍ଷନୀ ସାଧକ ଏଵୀ ଆରାଧନାମାଂ
ସମର୍ଥ, ଏଵା ଜେ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନେ ତେ ହରି-ହରାଦି ଜାଣତା ନଥୀ, ତେ ଜ ଉପାଦେଯ ଛେ ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ
ଛେ. ୪୨.
ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୪୨ ]ପରମାତ୍ମପ୍ରକାଶ: [ ୭୫