Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Telugu transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
శ్రీ దిగంబర జైన స్వాధ్యాయమందిర ట్రస్ట, సోనగఢ - ౩౬౪౨౫౦
భావార్థ :(౧) అనుపచరిత అసద్భూత వ్యవహారథీ జేనో సంబంధ ఛే ఏవాం ద్రవ్యకర్మ
అనే నోకర్మథీ రహిత తేమ జ అశుద్ధ నిశ్చయనయథీ జేనో సంబంధ ఛే ఏవా మతిజ్ఞానాది విభావగుణ
అనే నరనారకాది విభావపర్యాయ రహిత చిదానంద జ జేనో ఏక స్వభావ ఛే ఏవుం జే శుద్ధాత్మతత్త్వ
ఛే తే జ భూతార్థ ఛే, పరమార్థరూప ‘సమయసార’ శబ్దథీ వాచ్య ఛే, సర్వ ప్రకారే ఉపాదేయభూత ఛే అనే
తేనాథీ జే అన్య ఛే తే హేయ ఛే. ఏవీ చల, మలిన, అవగాఢ రహితపణే నిశ్చయశ్రద్ధానబుద్ధి తే
సమ్యక్త్వ ఛే, తేమాం ఆచరణ పరిణమన తే దర్శనాచార ఛే.
(౨) తేమాం జ సంశయ, విపర్యాస, అనధ్యవసాయ రహితపణే స్వసంవేదనజ్ఞానరూపే గ్రాహకబుద్ధి
తే సమ్యక్జ్ఞాన ఛే, తేమాం ఆచరణపరిణమనతే జ్ఞానాచార ఛే.
(౩) తేమాం జ శుభాశుభ సంకల్పవికల్పరహితపణే నిత్యానందమయ సుఖరసనా ఆస్వాదరూప
స్థిర (నిశ్చల) అనుభవ తే సమ్యక్చారిత్ర ఛే, తేమాం ఆచరణ-పరిణమన తే చారిత్రాచార ఛే.
जे परमप्पु णियंति मुणि ये केचन परमात्मानं निर्गच्छन्ति स्वसंवेदनज्ञानेन जानन्ति
मुनयस्तपोधनाः किं कृत्वा पूर्वम् परमसमाहि धरेवि रागादिविकल्परहितं परमसमाधिं धृत्वा
केन कारणेन परमाणंदह कारणिण निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसदानन्दपरमसमरसीभावसुख-
रसास्वादनिमित्तेन तिण्णि वि ते वि णवेवि त्रीनप्याचार्योपाध्यायसाधून् नत्वा नमस्कृत्येत्यर्थः
अतो विशेषः अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं तथैवाशुद्धनिश्चयसंबन्धः
मतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायरहितं च यच्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव
भूतार्थं परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति
అధికార-౧ : దోహా-౭ ]పరమాత్మప్రకాశ: [ ౨౩
भावार्थ :अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसीसे अनादि संबंध है, परंतु
असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनयकर द्रव्यकर्म, नोकर्मका संबंध होता है, उससे रहित
और अशुद्ध निश्चयनयकर रागादिका संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुणके संबंधसे
रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायोंसे रहित ऐसा जो चिदानंदचिद्रूप एक
अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है
उसीको परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए वही
सब प्रकार आराधने योग्य है उससे जुदी जो परवस्तु है वह सब त्याज्य है ऐसी दृढ़ प्रतीति
चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण
अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह
दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निजस्वरूपमें संशय
-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहकबुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो
आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह
ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ-अशुभ समस्त
संकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरसका आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है,