भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत आ ‘प्रवचनसार’ नामनुं शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’नां सर्वोत्कृष्ट आगमोमांनुं एक छे.
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’नी उत्पत्ति कई रीते थई ते आपणे पट्टावलिओना आधारे संक्षेपमां प्रथम जोईएः
आजथी २४७४ वर्ष पहेलां आ भरतक्षेत्रनी पुण्यभूमिमां जगत्पूज्य परम भट्टारक सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गनो प्रकाश करवा माटे समस्त पदार्थोनुं स्वरूप पोताना सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट करता हता. तेमना निर्वाण पछी पांच श्रुतकेवळी थया, जेमां छेल्ला श्रुतकेवळी श्री भद्रबाहुस्वामी थया. त्यां सुधी तो द्वादशांगशास्त्रना प्ररूपणथी निश्चयव्यवहारात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्ततो रह्यो. त्यार पछी काळदोषथी क्रमे क्रमे अंगोना ज्ञाननी व्युच्छित्ति थती गई. एम करतां अपार ज्ञानसिंधुनो घणो भाग विच्छेद पाम्या पछी बीजा भद्रबाहुस्वामी आचार्यनी परिपाटीमां बे समर्थ मुनिओ थया — एकनुं नाम श्री धरसेन आचार्य अने बीजानुं नाम श्री गुणधर आचार्य. तेमनी पासेथी मळेला ज्ञान द्वारा तेमनी परंपरामां थयेला आचार्योए शास्त्रो गूंथ्यां अने वीर भगवानना उपदेशनो प्रवाह वहेतो राख्यो.
श्री धरसेन आचार्यने आग्रायणीपूर्वना पांचमा ‘वस्तु’ अधिकारना महाकर्मप्रकृति नामना चोथा प्राभृतनुं ज्ञान हतुं. ते ज्ञानामृतमांथी अनुक्रमे त्यार पछीना आचार्यो द्वारा षट्खंडागम, तथा तेनी धवला -टीका, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रो रचायां. आ रीते प्रथम श्रुतस्कंधनी उत्पत्ति छे. तेमां जीव अने कर्मना संयोगथी थयेला आत्माना संसारपर्यायनुं — गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिनुं — संक्षिप्त वर्णन छे, पर्यायार्थिकनयने प्रधान करीने कथन छे. आ नयने अशुद्धद्रव्यार्थिक पण कहे छे अने अध्यात्मभाषाथी अशुद्ध- निश्चयनय अथवा व्यवहार कहे छे.