मेरी आंतरिक भावना है कि यह अनुवाद भव्य जीवोंको जिनकथित वस्तुविज्ञानका निर्णय कराकर, अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखकी श्रद्धा कराकर, प्रत्येक द्रव्यका संपूर्ण स्वातंत्र्य समझाकर, द्रव्यसामान्यमें लीन होनेरूप शाश्वत सुखका पंथ दिखाये । ‘परमानन्दरूपी सुधारसके पिपासु भव्य जीवोंके हितार्थ’ श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने इस महाशास्त्रकी व्याख्या की है । जो जीव इसमें कथित परमकल्याणकारी भावोंको हृदयगत करेंगे वे अवश्य परमानन्दरूपी सुधारसके भाजन होंगे । जब तक ये भाव हृदयगत न हों तब तक निश – दिन यही भावना, यही विचार, यही मंथन और यही पुरुषार्थ कर्तव्य है । यही परमानन्दप्राप्तिका उपाय है । श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव द्वारा तत्त्वदीपिकाकी पूर्णाहुति करते हुये भावित भावनाको भाकर यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ — ‘‘आनन्दामृतके पूरसे परिपूर्ण प्रवाहित कैवल्यसरितामें जो निमग्न है, जगत्को देखनेके लिये समर्थ महाज्ञानलक्ष्मी जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्नके किरणोंके समान स्पष्ट है और जो इष्ट है — ऐसे प्रकाशमान स्वतत्त्वको जीव स्यात्कारलक्षणसे लक्षित जिनेन्द्रशासनके वश प्राप्त हों ।’’ श्रुतपंचमी, वि० सं० २००४