Pravachansar (Hindi). Gatha: 94.

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मात्रमेवावलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छन्तः परसमया भवन्ति ।।९३।।
अथानुषंगिकीमिमामेव स्वसमयपरसमयव्यवस्थां प्रतिष्ठाप्योपसंहरति
जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा
आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ।।९४।।
ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः
आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।९४।।
शरीराकारगतिमार्गणाविलक्षणः सिद्धगतिपर्यायः तथाऽगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपाः साधारणस्वभाव-
गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव

स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च ‘जेसिं अत्थि सहाओ’ इत्यादिगाथायां, तथैव ‘भावा जीवादीया’ इत्यादि-

गाथायां च
पञ्चास्तिकाये पूर्वं कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूत-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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करके, तत्त्वकी अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है ऐसे मोहको प्राप्त होते हुये परसमय होते हैं
भावार्थ :पदार्थ द्रव्यस्वरूप है द्रव्य अनन्तगुणमय है द्रव्यों और गुणोंसे पर्यायें
होती हैं पर्यायोंके दो प्रकार हैं :द्रव्यपर्याय, २गुणपर्याय इनमेंसे द्रव्यपर्यायके दो
भेद हैं :समानजातीयजैसे द्विअणुक, त्रि -अणुक, इत्यादि स्कन्ध;
असमानजातीयजैसे मनुष्य देव इत्यादि गुणपर्यायके भी दो भेद हैं :स्वभाव-
पर्यायजैसे सिद्धके गुणपर्याय २विभावपर्यायजैसे स्वपरहेतुक मतिज्ञानपर्याय
ऐसा जिनेन्द्र भगवानकी वाणीसे कथित सर्व पदार्थोंका द्रव्य -गुण -पर्यायस्वरूप ही
यथार्थ है जो जीव द्रव्य -गुणको न जानते हुये मात्र पर्यायका ही आलम्बन लेते हैं वे निज
स्वभावको न जानते हुये परसमय हैं ।।९३।।
अब आनुषंगिक ऐसी यह ही स्वसमय -परसमयकी व्यवस्था (अर्थात् स्वसमय और
परसमयका भेद) निश्चित करके (उसका) उपसंहार करते हैं :
अन्वयार्थ :[ये जीवाः ] जो जीव [पर्यायेषु निरताः ] पर्यायोंमें लीन हैं
[परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः ] उन्हें परसमय कहा गया है [आत्मस्वभावे स्थिताः ] जो जीव
आत्मस्वभावमें स्थित हैं [ते ] वे [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्वसमय जानने
।।९४।।
१. आनुषंगिक = पूर्व गाथाके कथनके साथ सम्बन्धवाली
पर्यायमां रत जीव जे ते ‘परसमय’ निर्दिष्ट छे;
आत्मस्वभावे स्थित जे ते ‘स्वकसमय’ ज्ञातव्य छे
. ९४.