मात्रमेवावलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छन्तः परसमया भवन्ति ।।९३।।
अथानुषंगिकीमिमामेव स्वसमयपरसमयव्यवस्थां प्रतिष्ठाप्योपसंहरति —
जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा ।
आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ।।९४।।
ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः ।
आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।९४।।
शरीराकारगतिमार्गणाविलक्षणः सिद्धगतिपर्यायः तथाऽगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपाः साधारणस्वभाव-
गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव
स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च ‘जेसिं अत्थि सहाओ’ इत्यादिगाथायां, तथैव ‘भावा जीवादीया’ इत्यादि-
गाथायां च पञ्चास्तिकाये पूर्वं कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः । पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूत-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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करके, तत्त्वकी अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है ऐसे मोहको प्राप्त होते हुये परसमय होते हैं ।
भावार्थ : — पदार्थ द्रव्यस्वरूप है । द्रव्य अनन्तगुणमय है । द्रव्यों और गुणोंसे पर्यायें
होती हैं । पर्यायोंके दो प्रकार हैं : — १ – द्रव्यपर्याय, २ – गुणपर्याय । इनमेंसे द्रव्यपर्यायके दो
भेद हैं : — १ – समानजातीय — जैसे द्वि – अणुक, त्रि -अणुक, इत्यादि स्कन्ध;
२ – असमानजातीय — जैसे मनुष्य देव इत्यादि । गुणपर्यायके भी दो भेद हैं : — १ – स्वभाव-
पर्याय — जैसे सिद्धके गुणपर्याय २ – विभावपर्याय — जैसे स्वपरहेतुक मतिज्ञानपर्याय ।
ऐसा जिनेन्द्र भगवानकी वाणीसे कथित सर्व पदार्थोंका द्रव्य -गुण -पर्यायस्वरूप ही
यथार्थ है । जो जीव द्रव्य -गुणको न जानते हुये मात्र पर्यायका ही आलम्बन लेते हैं वे निज
स्वभावको न जानते हुये परसमय हैं ।।९३।।
अब १आनुषंगिक ऐसी यह ही स्वसमय -परसमयकी व्यवस्था (अर्थात् स्वसमय और
परसमयका भेद) निश्चित करके (उसका) उपसंहार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [ये जीवाः ] जो जीव [पर्यायेषु निरताः ] पर्यायोंमें लीन हैं
[परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः ] उन्हें परसमय कहा गया है [आत्मस्वभावे स्थिताः ] जो जीव
आत्मस्वभावमें स्थित हैं [ते ] वे [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्वसमय जानने ।।९४।।
१. आनुषंगिक = पूर्व गाथाके कथनके साथ सम्बन्धवाली ।
पर्यायमां रत जीव जे ते ‘परसमय’ निर्दिष्ट छे;
आत्मस्वभावे स्थित जे ते ‘स्वकसमय’ ज्ञातव्य छे . ९४.