मुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः कुण्डलांगद-
पीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा
कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां
स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैरुत्पादव्यय-
ध्रौव्यैर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा
कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वर-
स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य
कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा
तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन परमात्मद्रव्यादभिन्नानां मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधार-
भूतपरमात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्याणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यसद्भावः । यथा स्वद्रव्यादि-
चतुष्टयेन कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य संबन्धि
यदस्तित्वं स एव कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्याणां स्वभावः,
तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षण-
ध्रौव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्ग-
१७८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
ध्रौव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णके अस्तित्वसे जिनकी निष्पत्ति होती है, —
ऐसे कुण्डलादि – उत्पाद, बाजूबंधादि – व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जो सुवर्णका अस्तित्व
है, वह (सुवर्णका) स्वभाव है; उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे, जो द्रव्यसे
पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंके स्वरूपको
धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे जिनकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे उत्पाद -व्यय-
ध्रौव्योंसे जो द्रव्यका अस्तित्व है वह स्वभाव है । (द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे
द्रव्यसे भिन्न दिखाई न देनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंका अस्तित्व है वह द्रव्यका ही
अस्तित्व है; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंके स्वरूपको द्रव्य ही धारण करता है,
इसलिए द्रव्यके अस्तित्वसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंकी निष्पत्ति होती है । यदि द्रव्य न
हो तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्यका स्वभाव है ।)
अथवा जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे कुण्डलादि -उत्पादोंसे बाजूबंधादि
व्ययोंसे और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जो पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे
सुवर्णके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि -उत्पादों, बाजूबंधादि व्ययों और
पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जिसकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे सुवर्णका, मूलसाधनपनेसे उनसे निष्पन्न
होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे