कहानजैनशास्त्रमाळा ]
स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् ।
स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ।।६९।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७०।।
एम कहीने श्रीमान् अमृतचंद्र आचार्य नयपक्षना त्यागनी भावनानां २३ कळशरूप काव्यो कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ ये एव ] जेओ [ नयपक्षपातं मुक्त्वा ] नयपक्षपातने छोडी [ स्वरूपगुप्ताः ] (पोताना) स्वरूपमां गुप्त थईने [ नित्यम् ] सदा [ निवसन्ति ] रहे छे [ ते एव ] तेओ ज, [ विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जेमनुं चित्त विकल्पजाळथी रहित शांत थयुं छे एवा थया थका, [ साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृतने पीए छे.
भावार्थः — ज्यां सुधी कांई पण पक्षपात रहे छे त्यां सुधी चित्तनो क्षोभ मटतो नथी. ज्यारे नयोनो सर्व पक्षपात मटी जाय त्यारे वीतराग दशा थईने स्वरूपनी श्रद्धा निर्विकल्प थाय छे, स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे अने अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे. ६९.
हवेना २० कळशमां नयपक्षने विशेष वर्णवे छे अने कहे छे के आवा समस्त नयपक्षोने जे छोडे छे ते तत्त्ववेदी (तत्त्वनो जाणनार) स्वरूपने पामे छेः —
श्लोकार्थः — [ बद्धः ] जीव कर्मथी बंधायेलो छे [ एकस्य ] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [ न तथा ] जीव कर्मथी बंधायेलो नथी [ परस्य ] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [ इति ] आम [ चिति ] चित्स्वरूप जीव विषे [ द्वयोः ] बे नयोना [ द्वौ पक्षपातौ ] बे पक्षपात छे. [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जे तत्त्ववेदी (वस्तुस्वरूपनो जाणनार) पक्षपातरहित छे [ तस्य ] तेने [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप