कहानजैनशास्त्रमाळा ]
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ।।९८।।
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि ।
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत् ।।९९।।
श्लोकार्थः — [ कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति ] कर्ता नक्की कर्ममां नथी, अने कर्म छे ते पण नक्की कर्तामां नथी — [ यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते ] एम जो बन्नेनो परस्पर निषेध करवामां आवे छे [ तदा कर्तृकर्मस्थितिः का ] तो कर्ताकर्मनी स्थिति शी? (अर्थात् जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं न ज होई शके.) [ ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि ] आ प्रमाणे ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे अने कर्म सदा कर्ममां ज छे [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता ] एवी वस्तुस्थिति प्रगट छे [ तथापि बत ] तोपण अरे! [ नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्यमां आ मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्यो छे? (एम आचार्यने खेद अने आश्चर्य थाय छे.)
भावार्थः — कर्म तो पुद्गल छे, तेनो कर्ता जीवने कहेवामां आवे ते असत्य छे. ते बन्नेने अत्यंत भेद छे, जीव पुद्गलमां नथी अने पुद्गल जीवमां नथी; तो पछी तेमने कर्ताकर्मभाव केम होई शके? माटे जीव तो ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी; अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आचार्ये खेदपूर्वक कह्युं छे के — आम प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’ एवो अज्ञानीनो आ मोह ( – अज्ञान) केम नाचे छे? ९८.
अथवा जो मोह नाचे छे तो भले नाचो; तथापि वस्तुस्वरूप तो जेवुं छे तेवुं ज छे — एम हवे कहे छेः —