२८४समयसार
इति आस्रवो निष्क्रान्तः ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः ।। आलंबन वडे तेमां एकाग्र थतो जाय छे ते पुरुषने, तत्काळ सर्व रागादिक आस्रवभावोनो सर्वथा अभाव थईने, सर्व अतीत, अनागत ने वर्तमान पदार्थोने जाणनारुं निश्चळ, अतुल केवळज्ञान प्रगट थाय छे. ते ज्ञान सर्वथी महान छे, तेना समान अन्य कोई नथी. १२४.
टीकाः — आ रीते आस्रव (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.
भावार्थः — आस्रवनो स्वांग रंगभूमिमां आव्यो हतो तेने ज्ञाने तेना यथार्थ स्वरूपे
जाणी लीधो तेथी ते बहार नीकळी गयो.
योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये,
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करै इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये.
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करै इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां आस्रवनो प्ररूपक चोथो अंक समाप्त थयो.