कहानजैनशास्त्रमाळा ]
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु ।
‘‘जे जीव परद्रव्यमां आसक्त – रागी छे अने सम्यग्द्रष्टिपणानुं अभिमान करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे ज नहि, वृथा अभिमान करे छे’’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः —
श्लोकार्थः — ‘‘[ अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातुः बन्धः न स्यात् ] आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी (कारण के शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने बंध कह्यो नथी)’’ [ इति ] एम मानीने [ उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित (रोमांचित) थयुं छे एवा [ रागिणः ] रागी जीवो ( – परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो – ) [ अपि ] भले [ आचरन्तु ] महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा [ समितिपरतां आलम्बन्तां ] *समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो [ अद्य अपि ] तोपण हजु [ ते पापाः ] तेओ पापी (मिथ्याद्रष्टि) ज छे, [ यतः ] कारण के [ आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी [ सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] तेओ सम्यक्त्वथी रहित छे.
भावार्थः — परद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे. पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यां सुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यां सुधी राग रहे त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि तो पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. ज्ञान थवामात्रथी बंधथी छुटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप – शुद्धोपयोगरूप – चारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, ‘बंध थतो नथी’ एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.
अहीं कोई पूछे के ‘‘व्रत-समिति तो शुभ कार्य छे, तो पछी व्रत-समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो?’’ तेनुं समाधानः — सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ-अशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.
* समिति = विहार, वचन, आहार वगेरेनी क्रियामां जतनाथी प्रवर्तवुं ते