Samaysar (Hindi). Gatha: 37 Kalash: 30.

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(स्वागता)
सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि
।।३०।।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र-
चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
अथ ज्ञेयभावविवेकप्रकारमाह
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को
तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
७९
अब इस अर्थका द्योतक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस लोकमें [अहं ] मैं [स्वयं ] स्वतः ही [एकं स्वं ] अपने
एक आत्मस्वरूपका [चेतये ] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं ] कि जो
स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनसे पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये
[मोहः ] य्ाह मोह [मम ] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका
और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है
[शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि ] मैं तो शुद्ध
चैतन्यके समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूँ (भावकभावके भेदसे ऐसा अनुभव करे ) ।३०।
इसीप्रकार गाथामें जो ‘मोह’ पद है उसे बदलकर, राग, द्वेष, क्रोध, मान,
माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनइन
सोलह पदोंके भिन्न-भिन्न सोलह गाथासूत्र व्याख्यान करना; और इसी उपदेशसे अन्य भी
विचार लेना
अब ज्ञेयभावके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं :
धर्मादि वे मेरे नहीं, उपयोग केवल एक हूँ,
इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके धर्मनिर्ममता कहे ।।३७।।