(स्वागता) सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ।।३०।।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र- चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
श्लोकार्थ : — [इह ] इस लोकमें [अहं ] मैं [स्वयं ] स्वतः ही [एकं स्वं ] अपने एक आत्मस्वरूपका [चेतये ] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं ] कि जो स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनसे पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये [मोहः ] य्ाह मोह [मम ] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है । [शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि ] मैं तो शुद्ध चैतन्यके समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूँ । (भावकभावके भेदसे ऐसा अनुभव करे ।) ।३०।
इसीप्रकार गाथामें जो ‘मोह’ पद है उसे बदलकर, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन — इन सोलह पदोंके भिन्न-भिन्न सोलह गाथासूत्र व्याख्यान करना; और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार लेना ।