शक्ति मात्रम् ] अपने चित्शक्तिमात्र भावका [अवगाह्य ] अवगाहन करके, [आत्मा ] भव्यात्मा [विश्वस्य उपरि ] समस्त पदार्थसमूहरूप लोकके ऊ पर [चारु चरन्तं ] सुन्दर रीतिसे प्रवर्तमान ऐसे [इमम् ] यह [परम् ] एकमात्र [अनन्तम् ] अविनाशी [आत्मानम् ] आत्माका [आत्मनि ] आत्मामें ही [साक्षात् कलयतु ] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो ।
भावार्थ : — यह आत्मा परमार्थसे समस्त अन्य भावोंसे रहित चैतन्यशक्तिमात्र है; उसके अनुभवका अभ्यास करो ऐसा उपदेश है ।३५।
अब चित्शक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसम्बन्धी हैं ऐसी आगेकी गाथाओंकी सूचनारूपसे श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [चित्-शक्ति -व्याप्त-सर्वस्व-सारः ] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा [अयम् जीवः ] यह जीव [इयान् ] इतना मात्र ही है; [अतः अतिरिक्ताः ] इस चित्शक्तिसे शून्य [अमी भावाः ] जो ये भाव हैं [ सर्वे अपि ] वे सभी [पौद्गलिकाः ] पुद्गलजन्य हैं — पुद्गलके ही हैं ।३६।
नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहिं ।।५०।।
प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं ।।५१।।