नमः श्रीसद्गुरवे ।
उपोद्घात
भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत यह ‘समयप्राभृत’ अथवा ‘समयसार’ नामका शास्त्र
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’का सर्वोत्कृष्ट आगम है।
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह पहले हम पट्टावलिओंके आधारसे
संक्षेपमें देख लेवें।
आज से २४६६ वर्ष पहले इस भरतक्षेत्रकी पुण्य-भूमिमें मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिये
जगत्पूज्य परम भट्टारक भगवान् श्री महावीरस्वामी अपनी सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा समस्त
पदार्थोंका स्वरूप प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाणके पश्चात् पांच श्रुतकेवली हुए, उनमेंसे अन्तिम
श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी हुए। वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रके प्ररूपणसे व्यवहारनिश्चयात्मक
मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तता रहा। तत्पश्चात् कालदोषसे क्रमक्रमसे अंगाोंके ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती
गई। इसप्रकार अपार ज्ञानसिंधुका बहु भाग विच्छेद हो जानेके पश्चात् दूसरे भद्रबाहुस्वामी
आचार्यकी परिपाटीमें दो महा समर्थ मुनि हुए — एकका नाम श्री धरसेन आचार्य तथा दूसरोंका
नाम श्री गुणधर आचार्य था। उनसे मिले हुए ज्ञानके द्वारा उनकी परम्परामें होनेवाले आचार्योंने
शास्त्रोंकी रचनाएँ की और श्री वीरभगवानके उपदेशका प्रवाह प्रवाहित रखा।
श्री धरसेन आचार्यको अग्रायणीपूर्वके पाँचवेँ ‘वस्तु’ अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक
चौथे प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानामृतमेंसे अनुक्रमसे उनके पीछेके आचार्यों द्वारा ष्टखंडागम तथा
उसकी धवला-टीका, गोम्म्टसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी रचना हुई। इसप्रकार प्रथम
श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति है। उसमें जीव और कर्मके संयोगसे हुए आत्माकी संसार-पर्यायका —
गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिका — संक्षिप्त वर्णन है, पर्यायार्थिकनयको प्रधान करके कथन है। इस
नयको अशुद्धद्रव्यार्थिक भी कहते हैं और अध्यात्मभाषासे अशुद्ध-निश्चयनय अथवा व्यवहार कहते
हैं।
श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दसवीं ‘वस्तु’के तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस
ज्ञानमेंसे उनके पीछेके आचार्योंने अनुक्रमसे सिद्धान्त रचे। इसप्रकार सर्वज्ञ भगवान् महावीरसे
प्रवाहित होता हुवा ज्ञान, आचार्योंकी परम्परासे भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवको प्राप्त हुआ। उन्होंने
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