(उपजाति) एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७१।।
(उपजाति) एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७२।।
भावार्थ : — इस ग्रन्थमें पहलेसे ही व्यवहारनयको गौण करके और शुद्धनयको मुख्य करके कथन किया गया है । चैतन्यके परिणाम परनिमित्तसे अनेक होते हैं उन सबको आचार्यदेव पहलेसे ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीवको मुख्य शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है । इसप्रकार जीव-पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापित करके अब कहते हैं कि — जो इस शुद्धनयका भी पक्षपात (विकल्प) करेगा वह भी उस शुद्ध स्वरूपके स्वादको प्राप्त नहीं करेगा । अशुद्धनयकी तो बात ही क्या है ? किन्तु यदि कोई शुद्धनयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा, इसलिये वीतरागता प्रगट नहीं होगी । पक्षपातको छोड़कर चिन्मात्र स्वरूपमें लीन होने पर ही समयसारको प्राप्त किया जाता है । इसलिये शुद्धनयको जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर शुद्ध स्वरूपका अनुभव करके, स्वरूपमें प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये ।७०।
श्लोकार्थ : — [मूढः ] जीव मूढ़ (मोही) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव मूढ़ (मोही) नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है) ।७१।